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164 :: मूकमाटी-मीमांसा
" अधिक अर्थ की चाह - दाह में / जो दग्ध हो गया है अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण / यूँ - जान - मान कर, अर्थ में ही मुग्ध हो गया है / अर्थ-नीति में वह / विदग्ध नहीं है।" (पृ. २१७)
इतना ही नहीं अर्थको सर्वस्व समझने वाले नर लोक-लाज की परवाह नहीं करते :
"यह कटु सत्य है कि / अर्थ की आँखें / परमार्थ को देख नहीं सकतीं, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को / निर्लज्ज बनाया है।” (पृ. १९२)
इसीलिए उपनिषद् में वित्तैषणा से ऊपर उठने की बात कही गई है।
आतंकवाद के कारणों का विश्लेषण कर कवि ने इससे बचने का उपदेश दिया है। उनकी दृष्टि में यह निश्चित
है :
" मान को टीस पहुँचने से ही, / आतंकवाद का अवतार होता है । अति-पोषण या अतिशोषण का भी / यही परिणाम होता है।” (पृ. ४१८)
कलिकाल का वर्णन करते समय कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि कैसे आज सभी स्टील के बर्तनों को पसन्द कर रहे हैं । प्राकृतिक औषधियों से उपचार को भूल गए हैं। इस कलिकाल में शान्त-भाव- सजक सात्त्विक भोजन को त्यागकर व्यक्ति राजसिक और तामसिक आहार ग्रहण कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक रोग और दरिद्रता समाज में छा गई है।
अणु शक्ति के दुष्परिणामों को उजागर कर कवि ने पाठक की दृष्टि को इस ओर मोड़ने का प्रयास किया है कि शक्ति के प्रयोग में यदि ऊपरवाले का दिमाग चढ़ जाय वह विनाश का, पतन का ही पाठ पढ़ा सकता है। कवि की यह उक्ति तृतीय विश्व युद्ध के प्रसंग में कितनी खरी उतर रही है । आतंकवाद का अन्त और अनन्तवाद के श्रीगणेश की कामना संसार की वर्तमान समस्याओं के प्रति आचार्य की जागरूकता को सूचित करती है। इस दृष्टि से आचार्य विद्यासागर की तुलना महाभारत के उस कृष्ण से की जा सकती है जो एक ओर अर्जुन को जीवन के परम पुरुषार्थ का बोध कराते हैं तो दूसरी ओर कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं ।
'मूकमाटी' कवि प्रतिभा का अनूठा उदाहरण है। सन्त कवि विद्यासागर में कवित्व बीज रूप संस्कार विशेष के प्रस्फुटन का परिणाम 'मूकमाटी' है । लोकशास्त्र काव्य आदि के अवेक्षण से प्राप्त निपुणता का इस काव्य में यत्र-तत्र दर्शन होता है । उदाहरण के लिए इन्द्र - मेघ युद्ध, विज्ञान से उपमाएँ, प्राकृतिक चिकित्सा शास्त्र, परावाक् का विवेचन आदि ऐसे प्रसंग हैं जो कवि के बहुविध ज्ञान को दर्शाते हैं ।
'मूकमाटी' निरा काव्य नहीं है बल्कि एक दार्शनिक कृति भी है । सन्तकवि ने दर्शन के नीरस तत्त्वों को इतने सरस ढंग से प्रतिपादित किया है कि वे सहज ही पाठक के हृदय में घर कर जाते हैं । सच भी है :
"बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं ।" (पृ. १०६)
फलत: माटी जैसे तुच्छ जड़ तत्त्व को आध्यात्मिकता के स्तर तक उठाकर कवि ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस भौतिक शरीर में ही ज्ञानोदय सम्भव है । शरीर निश्चय से धर्म का साधन है । इस सम्यक् सरकनेवाले संसार से छुटकारा पाना ही जीवन का परम लक्ष्य है। इस संसार में जीव चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। इस संसरण का स्पष्टीकरण आचार्य ने बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से किया है । व्यक्ति की बाह्योन्मुखी दृष्टि ही उसके पतन का, उसके भ्रमित होने का, उसके बन्धन का काव्य है, जबकि आत्मदर्शन उसे संसार चक्र से मुक्त करता है :