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मूकमाटी-मीमांसा :: 169 नाभि तक यात्रा होती है उसकी/पवन-संचालिता जो रही!" (पृ. ४०१) नाड़ी चक्र या कुण्डलिनी आदि के रहस्य को कितने व्यक्ति समझ पाएँगे? विपश्यना की चर्चा शायद अधिक बोधगम्य रूप में रूपकों के माध्यम से हो सकती थी। सम्भवत: कवि की दृष्टि में विभिन्न बौद्धिक स्तरों से बना सम्पूर्ण समाज रहा होगा। सामान्यत: काव्य तत्त्व का भली प्रकार निर्वाह हुआ है, यथा :
- “अबला बालायें सब/तरला तारायें अब/छाया की भाँति/अपने पतिदेव
चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो/छुपी जा रहीं।" (पृ. २) 0 "दशा बदल गई है/दशों दिशाओं की/धरा का उदारतर उर/और
उरु उदर ये/गुरु-दरारदार बने हैं/जिनमें प्रवेश पाती हैं आग उगलती हवायें ये/अपना परिचय देती-सी
रसातल-गत उबलते लावा को।" (पृ. १७७) 0 "वह राग कहाँ, पराग कहाँ/चेतना की वह जाग कहाँ
वह महक नहीं, वह चहक नहीं,/वह ग्राह्य नहीं, वह गहक नहीं।"(पृ. १७९) इन प्रसंगों में लय का वह स्वरूप है जिसमें कविता मानों झूमती, इठलाती अग्रसर होती है। दूसरी ओर, एकाध स्थलों पर बड़ी शिथिल पंक्तियाँ भी हैं :
"निशा का अवसान हो रहा है/उषा की अब शान हो रही है।" (पृ. १) कविता के विशेषज्ञ ही इस काव्य कृति के शिल्प पक्ष पर साधिकार कुछ कह सकते हैं। हम तो एक अत्यन्त सामान्य कविता प्रेमी तथा साहित्य के विद्यार्थी के रूप में यही अनुभव करते हैं कि काव्य की गति सर्वत्र एक-सी सहज नहीं है । लगता है कि कुछ पंक्तियों को आवश्यक मान कर बेमन से जोड़ा गया है।
हमारी सीमित जानकारी के अनुसार 'मूकमाटी' हिन्दी की अपने ढंग की अनूठी काव्य कृति है जिसमें कथानक तथा चरित्र अत्यन्त गौण हैं । ऐसी रचना को विद्वान् महाकाव्य मानने से इनकार कर सकते हैं । आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने 'हिन्दी साहित्य-बीसवीं शताब्दी' में मैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्य 'साकेत' पर विचार करते हुए महाकाव्य की अपनी परिभाषा दी थी-“महाकाव्य की रचना जातीय संस्कृति के किसी महाप्रवाह; सभ्यता के उद्गम, संगम, प्रलय; किसी महच्चरित्र के विराट् उत्कर्ष अथवा आत्मतत्त्व के किसी चिर अनुभूत रहस्य को प्रदर्शित करने के लिए की जाती है।" अपने श्रद्धेय गुरुवर की परिभाषा को आधार रूप मानते हुए हम आलोच्य रचना को महाकाव्य मानते हैं, क्योंकि यह आत्मतत्त्व के किसी चिर अनुभूत रहस्य को प्रदर्शित करने वाली रचना है । आत्म तत्त्व का यह अनुभूत रहस्य कम से कम छब्बीस शताब्दियों से हमारे महापुरुष देते रहे हैं। हिन्दी में काव्य रूप में हमको अवश्य 'मूकमाटी' के माध्यम से ही मिला है। यह आत्म तत्त्व केवल जैन मत को मानने वालों की नहीं बल्कि स्वार्थ, हिंसा, विनाशकारी युद्धों से त्रस्त तथा असहाय मानव मात्र की पूँजी है। मानववादी चिन्तन की सीमाओं को हम देखते आ रहे हैं । अब मानवतावादी अवधारणा की प्रतिष्ठा की आवश्यकता है, अन्यथा सम्पूर्ण विश्व के सामने भयावह भविष्य उपस्थित है । इस महाकाव्य का महत्त्व इस पृष्ठभूमि में विशेष हो गया है ।