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'मूकमाटी' में प्रशासनिक एवं न्यायिक दृष्टि
सुरेश जैन आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित महाकाव्य 'मूकमाटी' भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण धरोहर है । पारस धाम नैनागिरि की माटी में 'मूकमाटी' महाकाव्य की पूर्णता की जानकारी पूर्णता के कुछ ही क्षणों में प्राप्त कर हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई थी। इसके पूर्व वरिष्ठ विद्वानों, साहित्यकारों एवं अपनी पत्नी विमला जैन, जिला एवं सत्र न्यायाधीश के साथ बैठकर इस लेखक ने नैनागिरि की सिद्ध शिला पर विराजमान आचार्य विद्यासागरजी के मधुर कण्ठ से इस महाकाव्य की अनेक पंक्तियाँ सुनने का अनुपम सौभाग्य प्राप्त किया है।
नैनागिरि में जन्मी यह मूकमाटी' प्रत्येक मानव में शाश्वत जीवन मूल्यों की स्थापना कर संस्कृति के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान करती है । यह प्रत्येक व्यक्ति को संजीवनी शक्ति प्रदान करती हुई अपनी उत्कृष्ट वैचारिक क्रान्ति द्वारा युगीन जीवनादर्शों की स्थापना करती है । पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश में (बुधवार, २५ अप्रैल, १९८४) को प्रारम्भ हुई तथा पारसनाथ की समवसरण भूमि नैनागिरि, छतरपुर, मध्यप्रदेश में (बुधवार, ११ फरवरी, १९८७) को पूरी हुई यह 'मूकमाटी' विश्व के प्रत्येक प्राणी को विकास के समान एवं समुचित अवसर उपलब्ध कराती है और प्रकाश स्तम्भ की भाँति उसे उत्कर्ष के सर्वोच्च शिखर का पथ प्रशस्त करती है।
मानवीय धर्म के बिना राजनीति, न्यायपालिका और कार्यपालिका पंगु होती है, क्योंकि प्रत्येक व्यवस्था मानव को केन्द्र में रखकर ही निर्मित की जाती है । व्यवस्था का यह त्रिकोण समाज का आधारभूत एवं महत्त्वपूर्ण अंग है । आज राजनीतिक, न्यायिक एवं प्रशासकीय पंगुता अपने शिखर पर है। हमें अपने राजनीतिज्ञों, न्यायविदों एवं प्रशासकों में मानवीयता के शाश्वत मूल्य स्थापित करना आवश्यक है जिससे ऊँचे पद पर बैठ कर उन्हें अपने बन्धु-बान्धवों एवं सामान्य व्यक्ति के साथ मानवीय व्यवहार करने में हीनता की भावना न हो । यदि राजनीतिज्ञ, न्यायविद् और प्रशासक आचार्यश्री के चारित्रिक-साहित्यिक अवदान का शतांश भी अपने जीवन में उतार लें तो वे और हम लौकिक एवं आध्यात्मिक सम्पन्नता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं।
प्रत्येक प्रशासनिक इकाई के सर्वांगीण विकास में संलग्न प्रशासकों के उत्थान के लिए अहंकारशून्यता एवं ऐन्द्रियसंयम की अवधारणा 'मूकमाटी' की इन पंक्तियों में साकार हो उठती है :
"विकास के क्रम तब उठते हैं/जब मति साथ देती है जो मान से विमुख होती है, और/विनाश के क्रम तब जुटते हैं जब रति साथ देती है/जो मान में प्रमुख होती है।
उत्थान-पतन का यही आमुख है।" (पृ. १६४) प्रशासकों एवं न्यायिक अधिकारियों से रचनाकार ने महती अपेक्षा की है कि वे सिंहवृत्ति अपनाएँ । मानवीय हितों के विपरीत सिद्धान्त विमुख होकर कोई समझौता न करें। समाचार एवं कृत्रिम आडम्बरों से स्वयं को अलग रखकर सदैव विवेकपूर्ण निर्णय लेकर समाज में उच्च कोटि के प्रशासनिक एवं न्यायिक मानदण्ड स्थापित करें। सन्त कवि ने इन पंक्तियों में यह भाव अभिव्यक्त किया है :
"पीछे से, कभी किसी पर/धावा नहीं बोलता सिंह, गरज के बिना गरजता भी नहीं,/और/बिना गरजे