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दर्शन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति : 'मूकमाटी'
शिवकुमार श्रीवास्तव सन्त कवि आचार्य विद्यासागरजी की रचना 'मूकमाटी' उत्कृष्ट काव्य कृति है। यह महाकाव्य है । महाकाव्य की शास्त्रीय परिभाषा के मान से भले ही यह महाकाव्य नहीं है, परन्तु रूढ अर्थ या परिभाषा को छोड़ दें और केवल उत्कृष्ट काव्य रचना होने के कारण इसे देखें-परखें तो यह निश्चित ही महाकाव्य है। "लीक छोड़ तीनों चलें, शायर - सिंह-सपूत" कहावत को चरितार्थ करते हुए आचार्य विद्यासागरजी ने महाकाव्य की परिपाटी तोड़ कर महाकाव्य की रचना की है।
महाकवि ने अपनी इस कृति में माटी को व्यक्तित्व प्रदान किया है । माटी के स्पन्दन की पहचान अतिरिक्त संवेदनशील कवि के ही बूते की बात है। माटी को माध्यम बना कर मानव जीवन को समग्रता में, निकष पर कस कर परखने का अनुष्ठान 'मूकमाटी' महाकाव्य की रचना है। पूरे काव्य में आँसुओं की पवित्र आर्द्रता और आत्मीय उष्मा का पावन स्पर्श है, जो कलुष को नि:शेष कर के आत्मा को कंचनवत् करने का सार्थक श्रम है । इस काव्य में माटी को ही नहीं, धरती माँ को भी व्यक्तित्व प्रदान किया गया है।
____काव्य की प्रारम्भिक कुछ पंक्तियों में प्रकृति सौन्दर्य के चित्रण के बाद मूक माटी द्वारा धरती माँ को सम्बोधित कर अपनी मनोवेदना को अभिव्यक्ति देने से रूपाकार ग्रहण करता है :
"....संकोच-शीला/लाजवती लावण्यवती-/सरिता-तट की माटी अपना हृदय खोलती है/माँ धरती के सम्मुख !/'स्वयं पतिता हूँ
और पातिता हूँ औरों से/"अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !
सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ/तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ'!" (पृ. ४) काव्य को नाम दिया है 'मूकमाटी', परन्तु कवि ने उसे मूक नहीं रहने दिया है। उसकी पीड़ा, उसकी वेदना, उसकी यन्त्रणा, उसकी तड़प, उसकी कसक एवं उसकी टीस को कवि ने वाणी दी है। साथ ही माटी के बहाने साधना के, तप के, समर्पण के तथा लोक कल्याण के लिए उत्सर्ग के मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी दी गई है । माटी मूक है-फिर भी मूक नहीं है, माटी जड़ है-परन्तु वह कवि के निकट, संवेदनशील मन के लिए जड़ नहीं है, चेतन है, स्पन्दमयी है, संवेदनशील मन को उसकी धड़कन सुनाई देती है। इसलिए मूकमाटी व्यक्तित्व पा जाती है । कवि की लेखनी से वह धरती माँ के सामने अपना हृदय खोलने लगती है। धरती माँ भी मौन नहीं रहती । सन्तान के परिताप पर ममता मौन रह ही नहीं सकती। धरती का कथन दार्शनिक सत्यों का उद्घाटन करने लगता है।
आचार्य विद्यासागरजी सन्त हैं। उन्होंने श्रमण संस्कृति का अवगाहन किया है एवं भारतीय दर्शन के मूल तत्त्वों को स्वाध्याय, चिन्तन, मनन से आत्मसात् किया है। उनके काव्य का आरम्भ तो प्रकृति चित्रण से होता है परन्तु शीघ्र ही शाश्वत, मौलिक प्रश्नों से हमारा सामना होने लगता है। भारतीय मेधा जिस कारण दार्शनिक चिन्तन में प्रवृत्त होती है, वह है दुःख । उसी दुःख की स्थिति, दुःख का कारण और उसका निवारण-इन समस्याओं के समाधान के लिए ही समस्त ऋषियों-मुनियों ने, तपस्वी साधकों ने, मनीषियों-दार्शनिकों ने, तर्कशास्त्रियों तथा मतवादों के प्रवर्तकों ने साधना की और चिन्तन, मनन, समाराधन, आत्मानुभूति और आत्मसाक्षात्कार से जिन सार्वभौम शाश्वत सत्यों को उपलब्ध किया, वे मानव मात्र की मुक्ति के सोपान के रूप में वाङ्मय में सुरक्षित हैं । सन्त कवि के लिए यह सहज था कि वे परम्परा से हटते हुए भी परम्परा के रक्षण में दुःख और उसके निदान को अपनी दृष्टि में हमेशा बनाए रखते। माटी