________________
92 :: मूकमाटी-मीमांसा
जीवन गति है, चेतना है । इसमें ठहराव नहीं है । जीवन का प्रतीक जल है, नदी की धारा है जो सनातन रूप से बहती है । यह चेतनता की धारा अविरल गतिमान् है । आचार्यजी ने अपने काव्य में इसे इस प्रकार व्यक्त किया है :
"जल जीवन देता है/हिम जीवन लेता है, / स्वभाव और विभाव में / यही अन्तर है, यही सन्तों का कहना है / जो / जग- जीवन - वेत्ता हैं । " (पृ. ५४ )
कवि का उपास्य अहिंसा है । यही मानव कल्याण का अस्त्र है। हिंसा नाश की ओर ले जाती है और अहिंसा मानव और अन्य प्राणियों को निकट लाती है, सहयोग की ओर अग्रसर करती है :
“हमारी उपास्य-देवता/ अहिंसा है / और / जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही / हिंसा छलती है।” (पृ. ६४ )
'मूकमाटी' का दूसरा खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' है । इसमें कवि के साहित्य बोध की अभिव्यक्ति है । यहाँ भी आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध सरिता और सागर के माध्यम से व्यक्त किया गया है। सरिता सरकती है, गतिमान् है तथा अस्थाई है जबकि सागर स्थाई है, सरकता नहीं है, इसकी ओर सरिता सरककर आती है और इसी में लय हो जाती है। इसी प्रकार जीव गतिमान् है, अस्थिर है । उसका उद्देश्य ही सागर रूपी परब्रह्म या अपार सत्ता में लय होना (तद्रूप हो जाना ) है :
" जो खिसकती - सरकती है / सरिता कहलाती है / सो अस्थाई होती है । और/सागर नहीं सरकता / सो स्थाई होता है / परन्तु,
सरिता सरकती सागर की ओर ही ना ! / अन्यथा, / न सरिता रहे, न सागर । यह सरकन ही सरिता की समिति है ।” (पृ. ११९ )
परमात्मा असीम है, अपार है, उसका कहीं किनारा नहीं, उसकी गुरुमत्ता की कोई सीमा नहीं । यह जो दृश्यमान् जगत् है, वह उस अपार शशि का एक बिन्दु है :
" ओर-छोर कहाँ उस सत्ता का ? / तीर-तट कहाँ गुरुमत्ता का ? जो कुछ है प्रस्तुत है / अपार राशि की एक कणिका
बिन्दु की जलांजलि सिन्धु को / वह भी सिन्धु में रह कर ही ।" (पृ. १२९ )
इस संसार में जीव सांसारिक मोह माया में लिप्त रहते हैं जिस के फलस्वरूप उन्हें आशा-निराशा होती है और सुख- दु:ख भोगना पड़ता है परन्तु जो आत्मज्ञानी है, जिसने अपनी आत्मा में ही ब्रह्म का साक्षात्कार किया हो वह उद्देश्य को प्राप्त होता / करता है। ऐसा ही जीव आत्मविज्ञ कहलाता है, स्थितप्रज्ञ कहलाता है जो माया-मोह के बन्धन में नहीं फँसता और जो सांसारिक राग-द्वेष से ऊपर उठकर सुख-दु:ख की स्थिति से परे पहुँच जाता है
:
जाल में
“स्थित - प्रज्ञ हँसते कहाँ ? / मोह-माया आत्म-विज्ञ फँसते कहाँ ?” (पृ. १३४)
काव्य में कुछ तत्त्वोद्घाटक संख्याओं और विचित्र चित्रों की व्याख्या भी है जिनके द्वारा कवि ने कई दार्शनिक तत्त्वों की व्याख्या की है । कवि संसार को ९९ का चक्कर मानते हैं, अतः हेय है और नव जीवन का स्रोत ही ध्येय है :