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मूकमाटी-मीमांसा :: 157
सकता है किन्तु लहर सरोवर के बिना नहीं रह सकती । अध्यात्म स्वाधीन नयन है, दर्शन पराधीन उपनयन है । दर्शन में शुद्ध तत्त्व का दर्शन नहीं होता । दर्शन कभी सत्य रूप का तो कभी असत्य रूप का होता है, जब कि अध्यात्म सदा सत्य, चिद्रूप ही भास्वत होता है । स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है । दर्शन का जीवन अनेक संकल्प-विकल्पों में व्यस्त होता है। बहिर्मुखी या बहुमुखी प्रतिभा ही दर्शन का पान करती है । अन्तर्मुखी, बन्दमुखी चिदाभा निरंजन का गान करती है । दर्शन का आयुध शब्द है विचार । अध्यात्म निरायुध, सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार होता है । एक ज्ञान और ज्ञेय दोनों है । दूसरा ध्यान और ध्येय दोनों है (पृ. २८८-२८९)। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य : जैन दर्शन में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त को 'सत्' कहा गया है । सत् ही द्रव्य का लक्षण है (तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९-३०) । द्रव्य दो हैं- चेतन और अचेतन । जो अपनी जाति को तो कभी नहीं छोड़ते फिर भी उनमें अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से प्रति समय जो नई अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद' कहते हैं। जैसे- मिट्टी के पिण्ड की घट पर्याय । पूर्व अवस्था के त्याग को 'व्यय' कहते हैं। जैसे- घट की उत्पत्ति होने पर पिण्ड रूप आकार का त्याग। तथा जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है, उसका व्यय और उदय नहीं होता किन्तु वह ध्रुवति अर्थात् स्थिर रहता है, इसलिए उसे 'ध्रुव' कहते हैं तथा ध्रुव का भाव या कर्म 'ध्रौव्य' कहलाता है । जैसे-मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओं में मिट्टी का अन्वय (तत्त्वार्थसूत्र, ५-४/३, सर्वार्थसिद्धि टीका)। आचार्यश्री ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य एवं सत् को व्यावहारिक भाषा में समझाया है- आना, जाना, लगा हुआ है। आना यानी जनन- उत्पाद है। जाना यानी मरण- व्यय है । लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है । और है यानी चिर-सत् । यही सत्य है यही तथ्य... (पृ. १८५)। भवानुगामी पाप : ग्रहण- संग्रहण का भाव भवानुगामी पाप है (पृ. १८९)। कला : 'क' यानी आत्मा-सुख है। 'ल' यानी लाना-देता है। कोई भी कला हो, कला मात्र से जीवन में सुख, शान्ति, सम्पन्नता आती है। किन्तु आजकल सकल कलाओं का प्रयोजन केवल अर्थ का आकलन-संकलन बना हुआ है । वास्तव में न अर्थ में सुख है और न अर्थ से सुख (पृ. ३९६)। अपराधी : अपराधी नहीं बनो, अपरा-धी बनो । पराधी नहीं, पराधीन नहीं, अपितु अपराधीन (स्वाधीन) बनो (पृ. ४७७)। अर्थ और परमार्थ : परमार्थ कभी अर्थ की तुला में तुलता नहीं है । अर्थ को तुला बनाना अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है । अर्थ को तुला बनाने से युग को अनर्थों के गर्त में धकेला जाना है (पृ. १४२)। संगीत : संगीत वह होता है, जो संगातीत (आसक्ति रहित) होता है (पृ. १४४)। प्रीति : जो अंगातीत होती है, उसे प्रीति कहते हैं (पृ. १४५)। संसार : सम् उपसर्ग पूर्वक सृ साधु से संसार बनता है । सृ का अर्थ है - गति । सम् अर्थात् समीचीन और सार यानी सरकना । जो सम्यक् सरकता है, वह संसार कहलाता है (पृ. १६१)। काल चक्र : काल स्वयं चक्र नहीं है, वह संसार चक्र का चालक होता है । यही कारण है कि उपचार से काल को चक्र कहते हैं (पृ. १६१) । संसार का चक्र वह है जो राग-द्वेष आदि वैभाविक अध्यवसान का कारण है (पृ. १६१)। कुलाल चक्र : कुलाल चक्र वह सान है, जिस पर चढ़कर जीवन अनुपम पहलुओं से निखर आता है (पृ. १६२)। श्वान और सिंहवृत्ति : सिंह और श्वान दोनों की जीवनचर्या अलग-अलग है। सिंह कभी, किसी पर पीछे से धावा नहीं बोलता, गरज के बिना गरजता नहीं और बिन गरजे किसी पर बरसता भी नहीं अर्थात् मायाचार से दूर रहता है । परन्तु श्वान सदा पीछे से जा काटता है, बिना प्रयोजन वह कभी भी भौंकने लगता है (पृ. १६९)। जीवन सामग्री की उपलब्धि