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मूकमाटी-मीमांसा :: 159
समता : सदा सर्वदा एक-सी दशा का होना समता है (पृ. ३७८)। समता की सखी मुक्ति है । वह सुरों, असुरों, जलचरों और नभश्चरों को ही नहीं, वरन् समता-सेवी भूचरों को वरती है (पृ. ३७८)। संसार के विषय में मूढ़ता : पुरुष और प्रकृति के खेल का नाम ही संसार है, यह कहना मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र है । खेलने वाला तो पुरुष है और प्रकृति खिलौना मात्र है । स्वयं को खिलौना बनाना कोई खेल नहीं है (पृ. ३९४)। सल्लेखना : काय और कषाय को कृश करना (पृ. ८७)।। मोक्ष : पुरुष का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है, सार है (पृ. ९३)। कम्बल वाले कौन ? : कम बल वाले ही कम्बल वाले होते हैं (पृ. ९२)। कामदेव और महादेव : लौकिक ख्याति है कि कामदेव का आयुध फूल होता है और महादेव का आयुध शूल । एक में पराग है, सघन राग है, जिसका फल संसार है । एक में विराग है, अनघ त्याग है, जिसका फल है- भव पार । एक औरों का दम लेता है, बदले में मद भर देता है तो एक औरों में दम भर देता है और तत्काल ही निर्मद कर देता है । दम सुख है एवं सुख का स्रोत है । मद दुःख है, सुख की मौत है (पृ.१०१-१०२)। पश्चिमी सभ्यता और भारतीय संस्कृति : पश्चिमी सभ्यता आक्रमण की निषेधिका नहीं है, अपितु आक्रमण-शीला है। उसकी आँखों में विनाशलीला घूरती रहती है। महामना सब कुछ तज कर जिस ओर अभिनिष्क्रमण कर गए, अपने में मग्न हो गए, उन्हीं की अनुक्रम निर्देशिका भारतीय संस्कृति है (पृ. १०२-१०३)। दण्ड-संहिता की व्यवस्था : घन-घमण्ड से भरे हुओं की उद्दण्डता दूर करने दण्ड-संहिता की व्यवस्था होती है (पृ. १०४)। मन और मन्त्र : मन्त्र न ही अच्छा होता है, न ही बुरा । अच्छा-बुरा तो अपना मन होता है । स्थिर मन ही महामन्त्र होता है और अस्थिर मन ही पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है । एक सुख का सोपान है, एक दुःख का सो-पान है (पृ. १०८१०९)। सुखमय जीवन : जो जीव अपनी जीभ जीतता है, उसी का दु:ख रीतता है । उसी का सुखमय जीवन बीतता है (पृ. ११६)। प्राण-प्रतिष्ठा : निगूढ़ निष्ठा से निकली, निशिगन्धा की निरी महक-सी बाहरी-भीतरी वातावरण को जो सुरभित करती है, वही निष्ठा की फलवती प्रतिष्ठा प्राणप्रतिष्ठा कहलाती है (पृ. १२०)। राजा और महाराजा का मरण : राजा का मरण प्रजा की रक्षा करते हुए रण में हुआ करता है। महाराजा का मरण उस ध्वजा की रक्षा करते हुए वन में होता है, जिसकी छाँव में सारी धरती सानन्द, सुखमय श्वास स्वीकारती हुई जीवित है (पृ. १२३)। परमार्त और परमार्थ : ज्ञान का पदार्थ की ओर ढुलक जाना ही परम आर्त-पीड़ा है और ज्ञान में पदार्थों का झलक आना ही परमार्थ-क्रीड़ा है (पृ. १२४)। अरूप की आस : तनधारी को सुरूप या कुरूप तन मिलता है। सुरूपवाला रूप में और निखार तथा कुरूपवाला रूप में सुधार लाने का प्रयास करता है। इसके लिए वह आभूषणादि का शृंगार करता है, परन्तु जिसे अरूप की आस लगी हो, उसे शृंगार से क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं (पृ. १३९)। दवा, दुआ और चेतना : जब हवा काम नहीं करती, तब दवा काम करती है और जब दवा काम नहीं करती, तब दुआ काम करती है । परन्तु जब दुआ भी काम नहीं करती, तब स्वयंभुवा चेतना काम करती है (पृ. २४१-२४२)। साधना की यात्रा : निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर तथा वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़ना भी