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158 :: मूकमाटी-मीमांसा
हेतु सिंह कभी दीनता की उपासना नहीं करता है, किन्तु श्वान एक टुकड़े के लिए स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता फिरता है। सिंह के गले में किसी भी कारणवश पट्टा नहीं बँध सकता । बन्धन को प्राप्त सिंह पिंजड़े में भी बिना पट्टा के ही घूमता रहता है । उस समय उसकी पूँछ ऊपर उठी, तनी रहती है। वह अपनी स्वतन्त्रता और स्वाभिमान पर आँच नहीं आने देता । श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता । पराधीनता - दीनता श्वान को कभी नहीं चुभती । श्वान के गले में जंजीर भी आभरण का रूप धारण करती है । श्वान को पत्थर मारने से वह पत्थर को खोजता है । सिंह अपने विवेक से मारने वाले पर प्रहार करता है (पृ. १७० ) । श्वान अपनी जाति को देख गुर्राता है, अत: उसकी निन्दा होती है । सिंह अपनी जाति में मिलकर जीता है। श्वान पागल भी हो जाता है, सिंह पागल नहीं होता (पृ. १७१) । वासना का वास : वासना का वास न तन में है, न वसन में वरन् माया प्रभावित मन में है (पृ. १८० ) ।
रसना : मुख से बाहर निकली रसना कुछ कह रही -सी लगती है कि भौतिक जीवन में रस नहीं है (पृ. १८०) । उच्च-नीच विषयक विचार : उच्च उच्च ही रहता है, नीच नीच ही रहता है, ऐसी आचार्यश्री की धारणा नहीं है। नीच को ऊपर उठाया जा सकता है। उचितानुचित सम्पर्क से सब में परिवर्तन सम्भव है । केवल शारीरिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि सहयोग से नीच उच्च नहीं बन सकता। इस कार्य का सम्पन्न होना सात्त्विक संस्कार पर आधारित है । मठे को यदि छौंक दिया जाता है तो मठा स्वादिष्ट ही नहीं, अपितु पाचक भी बनता है। दूध में मिश्री का मिश्रण हो तो दूध स्वादिष्ट भी बनता है, बलवर्द्धक भी। इससे विपरीत विधि-प्रयोग से अर्थात् मठे में मिश्री का मिश्रण कदाचित् गुणकारी तो है परन्तु दूध को छौंक देना तो बुद्धि की विकृति सिद्ध करता है (पृ. ३५७-३५८)।
पाणिग्रहण और प्राण - ग्रहण : सन्तों ने पाणिग्रहण संस्कार को धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है, परन्तु लोभी- पापी मानव पाणिग्रहण को प्राण- ग्रहण का रूप देते हैं (पृ. ३८६) ।
औषधि की आवश्यकता : पथ्य का सही पालन हो तो औषधि की आवश्यकता ही नहीं और यदि पथ्य का पालन नहीं हो तो भी औषधि की आवश्यकता नहीं है (पृ. ३९७) ।
औषधियों का सही मूल्य : औषधियों का सही मूल्य रोग का शमन है । कोई भी औषधि हो, वह हीनाधिक मूल्यवाली नहीं होती तथापि श्रीमानों, धीमानों की आस्था इससे विपरीत हुआ करती है (पृ. ४०८) ।
रसास्वाद : रस का स्वाद उसी रसना को आता है जो जीने की इच्छा से ही नहीं, मृत्यु की भीति से भी ऊपर उठी है। रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति कभी किसी वस्तु के स्वाद से परिचित नहीं हो सकता । भा में दूध मिलाने पर निरा-निरा दूध और भात का नहीं, मिश्रित स्वाद ही आता है फिर मिश्री मिलाने पर तो तीनों का ही सही स्वाद लुट जाता है (पृ. २८१) ।
इन्द्रियों को भूख नहीं लगती : इन्द्रियों को भूख नहीं लगती। बाहर से लगता है कि उन्हें भूख लगती है। रसना कब रस को चाहती है ? नासा गन्ध को याद नहीं करती । स्पर्शन स्पर्श की प्रतीक्षा नहीं करती। स्वर के अभाव में श्रवणेन्द्रिय को ज्वर नहीं चढ़ता है । आँखें रूप की, स्वरूप की आरती नहीं उतारती हैं । ये सारी इन्द्रियाँ जड़ हैं। जड़ का उपद जड़ होता है। जड़ में कोई चाह नहीं होती है। जड़ की कोई राह नहीं होती (पृ. ३२८) ।
विषयी को विषयों का ग्रहण बोध: विषयों का ग्रहण बोध इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है । इन्द्रियाँ खिड़कियाँ हैं, यह शरीर भवन है । भवन में बैठा पुरुष भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है, वासना की आँखों से विषयों को ग्रहण करता है (पृ. ३२९) ।
सही ज्ञान : स्व को स्व के रूप में और पर को पर के रूप में जानना ही, सही ज्ञान है (पृ. ३७५ ) । सही ज्ञान का फल : स्व में रमण करना ही सही ज्ञान का फल है (पृ. ३७५)।