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156 :: मूकमाटी-मीमांसा
'भावित होना ही मोक्ष का धाम है।
प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है और सब को छोड़कर अपने आप (पृ. १०९-११०) ।
गदहा : गदहा भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! मेरा नाम सार्थक हो । गद का अर्थ है रोग, हा का अर्थ है हारक मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ और कुछ वांछा नहीं है (पृ. ४० ) ।
वर्ण-वर्णलाभ और वर्णसंकर : सामान्यतया वर्ण का आशय रंग से या अंग से लगाया जाता है किन्तु इस विषय में आचार्य विद्यासागर का दूसरा ही मत है। वे कहते हैं कि वर्ण का आशय न रंग से है, न ही अंग से, वरन् चाल-चरण ढंग से है। यानी जिसे अपनाया है उसे, जिसने अपनाया है, उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म, रूप-स्वरूप को परिवर्तित करना अर्थात् संस्कारित करना । यदि यह स्थिति न रही तो वर्ण संकर दोष हो जाएगा। कोई यह न समझे कि इससे वर्णलाभ का निषेध हुआ है । इसे वे उदाहरण देकर समझाते हैं कि नीर की जाति न्यारी है और क्षीर की जाति न्यारी है। दोनों के स्पर्श, रस, रंग भी परस्पर न्यारे-न्यारे हैं । फिर यह सर्वविदित है कि यथाविधि क्षीर में नीर मिलाते ही नीर क्षीर बन जाता है। केवल वर्ण-रंग की अपेक्षा तो गाय का क्षीर धवल है तथा आक का क्षीर भी धवल है। दोनों ऊपर से स्वच्छ हैं परन्तु उन्हें मिलाते ही विकार उत्पन्न होता है। क्षीर फट जाता है। नीर का क्षीर बन जाना वर्ण-लाभ है, वरदान है और क्षीर का फट जाना ही वर्णसंकर है, अभिशाप है (पृ. ४७ - ४९) । वर्णसंकर और वर्णलाभ की इससे सुन्दर परिभाषा और स्पष्टीकरण दूसरा नहीं हो सकता । अत: वर्णलाभ में कोई दोष नहीं है । वर्णसंकर दोषपूर्ण है । आचार्यश्री की इस परिभाषा को यदि ध्यान में रखा जाए तो वर्ण सम्बन्धी समस्त मतभेद स्वतः समाप्त हो जाएँगे ।
माटी और कंकर : मृदु और कर्कश स्वभाव के प्रतीक माटी और कंकर के प्रसंग में कंकर के प्रति आचार्यश्री कहते हैं कि अरे कंकरो ! तुम्हारा माटी से मिलन तो हुआ किन्तु तुम माटी में नहीं मिले। माटी से स्पर्श तो हुआ किन्तु तुम माटी घु नहीं। चलती चक्की में डालकर तुम्हें पीसा जाए तो भी तुम अपने गुणधर्म को नहीं भूलते हो, भले ही तुम्हारी स्थिति चूर्ण या रेत की बन जाए। कर्कश स्वभाववाला व्यक्ति भी चूर्ण - चूर्ण भले ही हो जाए, किन्तु अपनी कर्कशता को नहीं छोड़ता है । वह पाषाण हृदय होता है। दूसरों का दुःख-दर्द देखकर भी उसे पसीना नहीं आता (पृ. ४९-५० ) । शुभ का सृजन : लघुता का त्यजन ही, गुरुता का यजन ही, शुभ का सृजन है (पृ. ५१) । अर्थात् जब तक व्यक्ति लघुता को छोड़कर गुरुता (बड़प्पन) की पूजा नहीं करता, तब तक उसके जीवन में शुभ की निर्मित नहीं हो सकती है। स्वभाव और विभाव : स्वभाव और विभाव जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। स्वभाव की विपरीतता विभाव है । इन दोनों में जीवनदाता और मारक जैसा अन्तर है। जैसे जल जीवन देता है और हिम जीवन लेता है। यही कारण है कि दोनों
की प्रकृति न्यारी है । जल शीतलता प्रदान करता है तो हिम की डली उष्णता लाती है (पृ. ५४) ।
आदमी : संयम के बिना आदमी नहीं होता है। आदमी वही है जो यथायोग्य आदमी हो अर्थात् इन्द्रियों का दमन करता हो (पृ. ६४) ।
हथियार का प्रयोग : बात का प्रभाव जब बलहीन होता है तब हाथ का प्रयोग कार्य करता है और हाथ का प्रयोग जब बलहीन होता तब हथियार का प्रयोग आर्य करता है (पृ.६०) ।
ग्रन्थि : जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है, वहाँ निश्चित ही हिंसा छलती है (पृ. ६४) ।
निर्ग्रन्थ दशा: निर्ग्रन्थ दशा में ही अहिंसा पलती है (पृ. ६४) ।
साहित्य : हित से जो युक्त होता है, वह सहित माना गया है और सहित का भाव ही साहित्य है (पृ. १११) । दर्शन एवं अध्यात्म : दर्शन का स्रोत मस्तक है । स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है। दर्शन के बिना अध्यात्म जीवन चल सकता है । अध्यात्म के बिना दर्शन का दर्शन नहीं होता है । जैसे लहरों के बिना सरोवर रह