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शब्दों की परिभाषाओं के शिल्पी : आचार्य विद्यासागर
डॉ. रमेश चन्द जैन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना के साथ-साथ पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज शब्दों की परिभाषाओं के अमर शिल्पी भी हैं। उनकी शब्द साधना बेजोड़ है । दैनिक व्यवहार, लोक जीवन और शास्त्रीय व्याख्याओं में जिन शब्दों को हम सहज भाव से लेते हैं उन शब्दों में कितना गम्भीर अर्थ भरा हुआ है, स्वयं वह शब्द अपने अर्थ को विविध रूप में किस भाँति व्यंजित करता है, यह आचार्य विद्यासागरजी महाराज की लेखनी से स्वत: व्यंजित होता दिखाई देता है। उनका जीवन साधना का प्रयोग है । जीवन की साधना के साथ-साथ शब्दों की साधना जैसी उनके काव्यों में प्राप्त होती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने शब्दों को नित नूतन परिभाषाएँ दी हैं। इससे वे शब्द और भी अधिक निखरकर सामने आए हैं, उनमें और भी अधिक रमणीयता आई है । शब्दों में छिपी हुई व्यंजना शक्ति और अधिक गम्भीर हो गई है। शब्द की अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शक्तियाँ अपने मूर्त रूप में 'मूकमाटी' काव्य में अभिव्यक्त हुई हैं। ससीम को असीम रूप देने का उनका प्रयास काव्य रूप में व्यंजित होता हुआ, सहृदयों के मन को आह्लादित करता हुआ, चिन्तन को एक नई गति. नयी सार्थकता और नई अर्थवत्ता प्रदान करता है। धर्म और दर्शन पद-पद पर निगढ होते हए भी काव्य में कहीं अवरोध उत्पन्न नहीं होता। वह निरन्तर प्रवाहित होता है । घट और पट की उपमाओं से न्यायशास्त्र के ग्रन्थ भरे पड़े हैं, किन्तु जिससे घट का निर्माण होता है, उस मूकमाटी पर क्या गुजरती है, उसे क्या-क्या सहना पड़ता है, अन्त में वह किस प्रकार घटाकार लेकर अपनी सार्थकता को सिद्ध करती है, इस विषय पर किसी की दृष्टि नहीं गई और किसी की दृष्टि गई भी हो तो उसका भौतिक पक्ष ही प्रबल रहा होगा, किन्तु उसमें छिपे हुए आध्यात्मिक रहस्य को खोजकर उजागर करने का काम किया है- शब्दों की परिभाषाओं के शिल्पी आचार्य विद्यासागर ने । वास्तव में इस कार्य के लिए जिस चिन्तन और साधना की अपेक्षा होती है, उस अपेक्षा की पूर्ति कविहृदय सन्त मानस ही कर सकता है। इस रूप में यह कृति एक सन्त हृदय का दर्पण है । चिरकाल की साधना के बाद ही इस प्रकार की कृति कभी-कभी कोई-कोई ही लिख पाता है । ऐसी कृतियाँ अनुपमेय और साकार अनन्वय अलंकार होती हैं।
___ उनका काव्य निशा के अवसान और उषा की शान से प्रारम्भ होता है । भानु की निद्रा तो टूट गई है, किन्तु टूटी हुई निद्रा वाला कोई शिशु जिस प्रकार माँ की गोद में करवटें लेता है, उसी प्रकार प्राची रूपी माँ की मार्दव गोद में वह करवटें ले रहा है। बच्चे की सुन्दर मूरत देखकर जिस प्रकार माँ के चेहरे पर मन्द मधुरिम मुस्कान बिखरती है, उसी प्रकार प्राची भी प्रमुदित है। वह प्रमुदित क्यों न हो, उसके शिशु के जागने के साथ-साथ प्राचीन भारतीय ऋषियों का सन्देश सार्थक हो रहा है-'तसमो मा ज्योतिर्गमय' ।
अधखुली कमलिनी डूबते चाँद की चाँदनी को भी आँखें खोलकर नहीं देखती है, क्योंकि ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना सबके वश की बात नहीं होती, विशेषकर स्त्री पर्याय में।
___तरला ताराएँ छाया की भाँति अपने पतिदेव चन्द्रमा के पीछे-पीछे कहीं सुदूर दिगन्त में छिपी जा रही हैं, इस शंका से कि कहीं दिवाकर उन्हें देख न ले । इस प्रकार की काव्य कल्पना के साथ यह काव्य प्रारम्भ होता है । संकोचशीला, लाजवती, लावण्यवती सरिता तट की माटी माँ धरती के सामने अपना हृदय खोलकर रख देती है । कवि के शब्दों में वह अपनी पीड़ा को इस प्रकार व्यंजित करती है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,/"अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ !/सुख-मुक्ता हूँ/दु:ख-युक्ता हूँ/तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !