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'बिन माँगे मोती मिले / माँगे मिले न भीख'
और यह फल/त्याग-तपस्या का है सेठ जी !" (पृ. ४५४)
मूकमाटी-मीमांसा :: 135
घट परिवार को बाँधते समय भी बड़ा हृदयस्पर्शी तथ्य प्रस्तुत करता है कि यद्यपि बन्धन कभी, किसी को भी रुचिकर नहीं होते परन्तु कभी-कभी वह आवश्यक भी होते हैं। पूरी श्रद्धा से एक पतली रस्सी का सहारा लेकर सेठ परिवार धारा में कूद जाता है। श्रद्धालु को नदी के मगरमच्छ भी अभयदान ही देते हैं । अरे ! उनके भाव भी बदल जाते हैं :
" परिवार की शान्त मुद्रा देख / क्षोभ का नूतन प्रयोग करना
जो
मूल-धर्म है उनका / भूल से गये हैं,
उनकी वृत्ति में आमूल-चूल / परिवर्तन-सा आ गया है।” (पृ. ४४५)
घट की आस्था, सेठ की दृढ़ श्रद्धा एवं चमत्कार के कारण तूफान, भँवर का संकट टल जाता है । कुम्भ का चेहरा प्रसन्नता से दमकने लगता है जैसे कोई विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ है ।
आतंकवाद नदी से सभी को डुबोने की सलाह देता है, पर नदी तो माँ है - ऐसे आदेश या कथन का पालन क्यों करे ? आतंकवाद तो मार्ग विरोधी बन कर नदी से पार हुए परिवार पर पुनः उपसर्ग के रूप में पत्थर बरसाने लगता है । इसी घटना के परिप्रेक्ष्य में कवि समाजवाद की धारा पर विचार प्रस्तुत करता है। हकीकत में हम भगवान् महावीर की समता को समझे ही नहीं । और हमने समाजवाद का अर्थ भी विकृत कर दिया । वह एक मात्र राजनीतिक नारा बनकर रह गया । पर आचार्य समाजवाद के वास्तविक अर्थ को समझाते हैं :
" प्रचार-प्रसार से दूर/ प्रशस्त आचार-विचार वालों का
जीवन ही समाजवाद है । / समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से समाजवादी नहीं बनोगे ।" (पृ. ४६१)
समता,
पत्थरों से लोग लहूलुहान हुए । सेठजी समताधारी हैं पर परिवार दुःख से पीड़ित है । सेठ की मानों अहिंसा, धैर्य की कसौटी पर परीक्षा ही हो रही है। वह अपनी जान की बाजी लगाकर भी पेट के नीचे कुम्भ को छिपाकर उसकी रक्षा करता है । यही तो सज्जनता है कि व्यक्ति अपने रक्षक की रक्षा में जी-जान लगा दे। पुनः, आचार्य क चमत्कार को मूर्त रूप देते हैं। इस उपसर्ग से रक्षा हेतु जलदेवता अपनी विक्रिया- विद्या से परिवार के चारों ओर रक्षामण्डल कर वृत्त रचाते हैं । अरे ! आतंकवाद के द्वारा फेंके गए जाल से पवन रक्षा करता है। पूरे दल को एक बार उछाल कर जल में फेंकता है। नाव चक्रवात में फँस कर चकराने लगती है । यह था रक्षण के लिए एक कड़वा उपाय । समय बीतता है। नाव किनारे लगती है। परिवार की मूर्च्छा टूटती है, पर पुन: आतंकवाद का विकृत स्वर गूँजता है । कवि यहाँ पुनः समाजवाद का मूल्यांकन करता है और एक ऐसे कटु सत्य को प्रस्तुत करता है कि चोर से अधिक पापी उसे चोर बनाने वाले होते हैं :
" चोर इतने पापी नहीं होते / जितने कि चोरों को पैदा करने वाले ।” (पृ. ४६८)
कवि सीता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बात को अधिक स्पष्ट करता है कि रावण द्वारा सीता के हरण में सीता का रूप भी एक कारण था जिससे रावण में ऐसे विकारी भाव जन्मे । यह सीता के अशुभ कर्मों का ही फल था । इतने विकराल कष्ट देखकर सेठ के परिवार का मन विचलित हो उठता है समर्पण के लिए। पर नदी रोकती है कि असत्य