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मूकमाटी-मीमांसा :: 139
यद्यपि पूरी कृति समग्रता में शान्त रस की कृति है पर कवि ने कथा के प्रसंगों में रौद्र, वीर, करुणा आदि रसों का भी प्रयोग किया है । कहीं-कहीं कवि ने रसों के लक्षणों एवं प्रभाव का भी तटस्थ रूप से वर्णन किया है :
"वीर-रस के सेवन करने से/तुरन्त मानव-खून
खूब उबलने लगता है।" (पृ. १३१) पर पर अधिकार चलाने की भूख इसी का परिणाम है । रौद्र रस का उदाहरण देखिए :
“एक साथ, सात-सात हाथ के/सात-सात हाथी आ-जा सकते इतना बड़ा गुफा-सम/महासत्ता का महाभयानक/मुख खुला है जिसकी दाढ़-जबाड़ में/सिंदूरी आँखोंवाला भय/बार-बार घूर रहा है बाहर, जिसके मुख से अध-निकली लोहित रसना/लटक रही है
और/जिससे टपक रही है लार/लाल-लाल लहू की बूंदें “सी।" (पृ. १३६) बीभत्स रस : "जिस पर मक्षिकायें/जो राग की निकायें हैं ।
विषय की रसिकायें हैं/भिनभिनाने लगीं"।" (पृ. १७) इसी प्रकार घृणा उत्पन्न करने वाला चित्रण भी है :
"शृंगार के बहाव में बहने वाली/नासा बहने लगी प्रकृति की। कुछ गाढ़ा, कुछ पतला/कुछ हरा, पीला मिला
मल निकला, देखते ही हो घृणा!" (पृ.१४७) शान्त रस : "रंग और तरंग से रहित/सरवर के अन्तरंग से
अपने रंगहीन या रंगीन अंग का/संगम होना ही संगत है
शान्त-रस का यही संग है/यही अंग!" (पृ. १५९) करुण एवं वात्सल्य रस की व्याख्या देखिए :
"करुणा-रस उसे माना है, जो/कठिनतम पाषाण को भी/मोम बना देता है,
वात्सल्य का बाना है/जघनतम नादान को भी/सोम बना देता है।" (पृ. १५९) कवि वर्षा के ताण्डव में उसके रौद्र रूप का वर्णन करते समय भी रौद्र रूप की अभिव्यंजना कर सका है। पूरे चित्र दिल में भय पैदा करने वाले हैं। इसी प्रकार आतंकवाद की चर्चा में, नदी के उफान में, भँवर वर्णन में ऐसे ही रसों का परिपाक द्रष्टव्य है । इससे वातावरण सजीव बन सका है।
कवि ने इसी प्रकार जहाँ आवश्यक लगा है वहाँ कटूक्तियों का प्रयोग भी सहजता से किया है--"तुम माटी के उगाल हो" (पृ. ३६५); “पाप की पुतली कहीं की' (पृ. ३७८) । आतंकवाद के चित्रण में ऐसी कटूक्तियाँ देखी जा सकती हैं।
इसी प्रकार कवि ने व्यंग्य भाषा का प्रयोग भी किया है । जहाँ वे समाजवाद, अपरिग्रह, वर्तमान वेतनभोगी, गणतन्त्र आदि की चर्चा करते हैं वहाँ व्यंग्यात्मक ध्वनि स्वयं मुखरित हुई है।
कृति में शब्द चित्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं । कवि शब्दों द्वारा अमूर्त को भी मूर्त रूप देता गया है । यद्यपि पूरी