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मूकमाटी-मीमांसा :: 151
ऐसी स्थिति में तुम ही बताओ, / सुख-शान्ति मुक्ति वह
किसे मिलेगी, क्यों मिलेगी/ किस - विध? / इसीलिए इस जीवन में
माता का मान-सम्मान हो, / उसी का जय-गान हो सदा, / धन्य !" (पृ. २०५ - २०६)
ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ ‘मूकमाटी' के रचनाकार का आचार्यत्व गरिमा के साथ प्रकट हुआ है किन्तु दूसरी ओर श्री विद्यासागरजी के कवि का लोकव्यापी व्यक्तित्व भी कम गरिमामय नहीं है, जहाँ वे सधुक्कड़ी भाषा में श्लोक जैसी सूक्तियों की रचना करते जाते हैं। ऐसी पदावलियाँ लोकोक्तियों की शक्ल अख़्तियार करके लोक के जीवन में भी आनन्द का संचरण करने में सक्षम होती हैं, जैसे :
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" आधा भोजन कीजिए / दुगणा पानी पीव ।
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी / वर्ष सवा सौ जीव !” (पृ. १३३)
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0 'आमद कम खर्चा ज्यादा / लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा / लक्षण है पिट जाने का ।” (पृ. १३५ )
इस तरह की सैकड़ों लोकोक्तियाँ, मुहावरे और सूक्तियाँ 'मूकमाटी' में मौजूद हैं, जो मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। आचार्यत्व और लोकत्व के मोहक सामंजस्य द्वारा 'मूकमाटी' का जो रूप पाठक के सामने निर्मित होता है, उससे वह अपने ज्ञान के अनुरूप जो भी ग्रहण करना चाहे ग्रहण कर सकता है। शब्दों का सटीक इस्तेमाल ऐसा मानों वे रचनाकार के इस्तेमाल के लिए ही निर्मित हुए हों। कहीं-कहीं विद्यासागरजी नए शब्दों का निर्माण कर उसमें अर्थ की ऐसी ऊष्मा भर देते हैं कि वह अपनी उजास से पाठक के मन को मुग्ध कर लेता है। कहीं-कहीं तो उर्दू हिन्दी के संयोग से नया सामासिक शब्द निर्मित कर डालते हैं, जैसे- “प्रथम चरण में ग़म-श्रम / निर्मम होता है" (पृ. २८३) । यहाँ 'ग़मश्रम' शब्द निर्माण का साहस देखने लायक है ।
प्रकृति के उपादानों को जनसमूह के रूप में उपस्थित कर दर्शन की सूक्तियों से कथा को वार्तालाप शैली में सरकाते जाना कोई 'मूकमाटी' में देखे । जहाँ मानवीकरण अलंकार सहज रूप में अवतरित होकर मानवीय वृत्तियों को उजागर करते जाते हैं । इसी तरह काव्य के सभी रसों का एक बृहत् रूपक विद्यासागरजी ने - 'शब्द सो बोध नहीं : बोध शोध नहीं' में बाँधा है। इस प्रकार का रसरूपक सम्भवत: पहली बार ही किसी रचनाकार ने रचा है । सभी रसों की प्रकृत दशा का साक्षात्कार कराते हुए आत्मज्ञान के जिस बिन्दु तक विद्यासागरजी ले जाना चाहते हैं, पाठक उनके साथ एकाकार होकर चलता जाता है और अन्त में जब वे यह कहते हैं कि “ सब रसों का अन्त होना ही / शान्त रस है" तो पाठक इस रस-समागम की गंगा में स्नान कर शान्ति का अनुभव कर समाधिस्थ हो जाता है। स्थायी रस के रूप में शान्त और सहायक के रूप में करुणा रस 'मूकमाटी' महाकाव्य में आद्योपान्त रसवर्षण करते हुए उस देशना तक ले जाते हैं जहाँ 'मूकमाटी' का यह परम सत्य परिलक्षित होता है कि आत्मोद्धार अपने ही पुरुषार्थ, अपनी ही साधना, अपने ही दर्शन और चिन्तन के प्रेरणास्पद स्फुरणों से होता है, जहाँ :
“विश्वास को अनुभूति मिलेगी / अवश्य मिलेगी / मगर
मार्ग में नहीं, मंजिल पर ! / और / महा- मौन में / डूबते हुए सन्त"
और माहौल को / अनिमेष निहारती - सी / मूक माटी ।" (पृ. ४८८ )
यहाँ मूकमाटी विराम लेकर अमिट दृश्य के साथ विराम ले लेती है। 'मूकमाटी' महाकाव्य में चाक्षुष प्रसंगों की भरमार है। माटी, कुम्हार, चाक, घट, कुदाली, काँटा, ऋतु वर्णन, राजा और मुक्ता राशि वाला अंश, अग्नि, मेघ, प्रलय आदि ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें चाक्षुष बिम्बों की अपार छटाएँ हैं। इन सभी को दृश्यांकित करने - कराने का काम