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144 :: मूकमाटी-मीमांसा
_ "क्या माटी की दया ने/कुदाली की अदया बुलाई है ?
क्या अदया और दया के बीच/घनिष्ट मित्रता है !" (पृ. २९) राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने भी इस वैषम्य को दूर करने के उद्देश्य से कहा था : "वृक-व्याघ्र-भीति से मही को मुक्त कर दो"(कुरुक्षेत्र)।
निःसन्देह, भयाकुल परिवेश, अशान्त वातावरण और क्रूर व्यवहार मानव स्वभाव के विरुद्ध है । इसी से कवि की स्थापना है : “दया का होना ही/जीव-विज्ञान का सम्यक् परिचय है" (पृ. ३७) । हमारे देश के महामुनियों ने पुराकाल से ही इस बात पर अत्यधिक बल दिया है कि लोक और परलोक दोनों के लिए दान-दया से बढ़कर कल्याणकारी तत्त्व दूसरा नहीं है : “नास्ति दानात् परं मित्रमिह लोके परत्र च" (अत्रिस्मृति, १५०-उत्तरार्द्ध)।
वेदनाभिव्यक्ति की दष्टि से भी 'मकमाटी' एक सफल काव्य है। मन की पावनता, कर्म-भोग के प्रति अनासक्ति एवं साधना की एकाग्रता से ही मनुष्य दुख-मुक्त हो सकता है। परन्त, मनुष्य अपने जीवन में सावधानी नहीं बरतता । इसी से उपयुक्तता एवं युक्तियुक्तता के अभाव में उसे अनेक प्रकार के कष्टों का फल भोगने के लिए बाध्य होना पड़ता है :
"योग के काल में भोग का होना/रोग का कारण है,
और/भोग के काल में रोग का होना/शोक का कारण है।" (पृ. ४०७) अतएव, मनुष्य साधना सम्पन्न बने, साथ ही ईश्वर में पूर्ण आस्था रखे, तभी वह दिव्य जीवन के उच्चतम शिखर पर पहुँच सकता है, अन्यथा सामान्य रक्त-चर्ममय जीवन में उसे शाश्वत आनन्द की उपलब्धियाँ कभी नहीं हो सकती : “आस्था से रीता जीवन/यह चार्मिक वतन है, माँ !" (पृ. १६) । हाँ, दुःख से घबराने की आवश्यकता नहीं, साधनारत होकर धैर्यपूर्वक मनुष्य को जीवन व्यतीत करना चाहिए। दुःख की समाप्ति पर सुख होगा ही : “पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है" (पृ. ३३)। महादेवी का वेदनावाद भी इसी प्रकार का रहा : “दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो" (दीपशिखा, पृ. ९०)। __आचार्य विद्यासागर मनुष्य को अध्यात्मोन्मुख बनने एवं समाज में धन उत्पादन एवं उसके वितरण की समुचित व्यवस्था पर बल देते हैं। मानव जीवन में जब तक सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्तर पर भिन्नता रहेगी, तब तक समाज में सुव्यवस्था नहीं लाई जा सकती । वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं : “समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से/ समाजवादी नहीं बनोगे" (पृ. ४६१)। इसके लिए लोभ को छोड़कर त्याग की भावना अपनानी होगी, क्योंकि :
"यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) मुनिजी की उपर्युक्त पंक्तियों की तुलना निरालाजी की निम्नांकित पंक्तियों से की जा सकती है :
"खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट ।” ('कुकुरमुत्ता', पृ.४) आचार्य श्री विद्यासागर ‘कथनी' को गौण, 'करनी' को मुख्य मानते हैं। इसीलिए, मनुष्य को उच्च विचारोंवाला, उदार दृष्टिकोणोंवाला और सबसे बढ़कर सर्वहित का ध्यान रखनेवाला बनना है। तभी सच्चा समाजवाद आ पाएगा : "प्रचार-प्रसार से दूर/प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है" (पृ.४६१) । ऐसा नहीं होने पर समाज में विद्वेष की भावना फैलेगी - अनैतिक कार्य होने लगेंगे। अस्तु, कवि का सत्परामर्श है :