________________
142 :: मूकमाटी-मीमांसा
खुद तरो,/औरों को तारो/यही हो आराधना । 'विद्या' के जो हैं स्वयं 'सागर'/ज्ञान-गुण के जो हैं आगर इन्हीं के चरणों में नत हो-/हम करें नित साधना। मूक माटी की सुगन्धी/फैलती बन आज चन्दन शब्द को दे अर्हन्त स्वामी/करें शेखर' चरण वन्दन ।'
'मूकमाटी' : सत्य पथ से विमुख जनों को विचार देने वाला काव्य
डॉ. दया प्रकाश सिन्हा 'मूकमाटी' में हमारे आस-पास के क्रियाशील जगत् के साधारण उपादानों को आधार बनाकर जीवन तथा दर्शन के सत्य को व्यक्त करने का प्रयत्न किया गया है । इसके कवि आचार्य श्री विद्यासागरजी ने इसमें ईश्वर के स्वरूप, आस्तिकता-नास्तिकता, जीवन के उद्देश्य आदि जैसे शाश्वत प्रश्नों का समाधान खोजने में रुचि ली है तो सांकेतिक ढंग से ही सही, समकालीन समाज की ज्वलन्त समस्याओं पर भी रोशनी डाली है । आतंकवाद की समस्या को ही लें, आचार्यजी की टिप्पणी है :
"जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती
धरती यह ।” (पृ. ४४१) 'माटी' जैसी उपेक्षित, अति सामान्य और तिरस्कृत वस्तु को काव्य का प्रमुख पात्र बनाना और धरती को उसकी माता के रूप में प्रस्तुत करना अनायास नहीं है, बल्कि इसके पीछे आचार्यजी की यह मान्यता है करुणामय कण-कण में।
एक सन्त द्वारा लिखी जाने वाली कृति 'मूकमाटी' में काव्य के लिए आवश्यक संवेदना और आदर्श हैं ही, साथ ही अलंकार, रूपक आदि के सन्तुलित प्रयोग भी हैं । मुक्त छन्द में होते हए भी 'मूकमाटी' में एक लयपूर्ण प्रवाह की व्याप्ति है।
'मूकमाटी' में आचार्यजी की आस्था 'वचन' में नहीं, सत्य के पथ से विमुख अथवा भटके हुए लोगों को 'विचार' देने के प्रति है । अब इस विचार के प्रभाव की सीमाओं और सम्भावनाओं पर मतभेद अथवा सहमति हो सकती है किन्तु इतना तो तय है कि उक्त 'विचार' इस कृति को उल्लेखनीय बनाते हैं।
पृष्ठ ४३ अधोमुखी जीवन उर्वमुखी थे.... आर्या
जाते हैं, ययं पर।
OOR