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मूकमाटी-मीमांसा :: 141 दिखने लगा दीन-हीन दिन/दुर्दिन से घिरा दरिद्र गृही-सा।" (पृ. २३८) और दिवस के अवसान ग्रहण से पूरी प्रकृति ही जैसे आतंकित है :
"काक-कोकिल-कपोतों में/चील-चिड़ियाँ-चातक-चित में बाघ-भेड़-बाज-बकों में/सारंग-कुरंग-सिंह-अंग में खग-खरगोशों-खरों-खलों में/ललित-ललाम-लजील लताओं में पर्वत-परमोन्नत शिखरों में/प्रौढ़-पादपों औ' पौधों में पल्लव-पातों, फल-फूलों में/विरह-वेदना का उन्मेष
देखा नहीं जाता निमेष भी।" (पृ. २४०) शब्दालंकारों में यमक, अनुप्रास के अनेक उदाहरण कृति में अंकित हैं, विशेषकर ऋतु वर्णन में । ऐसे अनेक चित्रों से पूरी कृति सजी हुई है। प्रकृति के उग्र रूप का चित्रण रौद्र रस का उत्तम उदाहरण है । और कष्ट टल जाने पर निरभ्र आकाश का चित्रण बड़ा ही मनोहारी है । शान्त रस का प्रवाह बहा है । सर्वत्र वर्णन में नवीनता है । इस हेतु पृष्ठ २६३-२६४ की पूरी पंक्तियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं। सन्त के गृह त्याग के पश्चात् वन में आश्रय ले रहे सेठ व परिवार को प्रकृति की गोद में ही आनन्द मिलता है । कवि प्रकृति के चित्रण का कोमल स्वरूप प्रस्तुत करता है।
स्थान की मर्यादा के कारण इस अथाह समुद्र का अवगाहन अपनी अल्पबुद्धि से जितना कर सका, मैंने उतना किया। भाव एवं कला पक्ष दोनों दृष्टियों से पूरी कृति की पृथक्-पृथक् समीक्षा की जाए तो दो अलग कृतियाँ लिखी जा सकती हैं। पूरी कृति को सांगोपांग पढ़ने-मनन करने के पश्चात् इस पर मेरी दृष्टि से निम्नलिखित विचार-पत्र प्रस्तुत किए जा सकते हैं'मूकमाटी' का भाव पक्ष : इसके अन्तर्गत कथा तत्त्व, जैन दर्शन की तात्त्विक विवेचना, समाजवादी दर्शन, नारी भावना, मातृत्व की महत्ता, वर्तमान युग बोध, जैन आचारांग, प्रकृति चित्रण, रस निरूपण रखा जा सकता है। कलापक्ष : इसके अन्तर्गत 'मूकमाटी' की भाषा, छन्द, अलंकार, भाषा की चित्रात्मकता, कृति में मुहावरे एवं कहावतें, भाषा में बिम्ब तथा प्रतीक लिए जा सकते हैं।
कृतिकार की अन्य काव्य कृतियों के मूल्यांकन को समाविष्ट करके 'आचार्य कवि विद्यासागर : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' पर शोध कार्य किया जा सकता है।
समग्रता को चन्द शब्दों में बाँधू तो इतना ही कहना चाहूँगा कि 'मूकमाटी' शर्करायुक्त वह रोटी है, जिसे किसी भी जगह से खाया जाय, वह मीठी ही मीठी लगेगी। यह आचार्यश्री के प्रति श्रद्धायुक्त पक्षपात नहीं है अपितु कवि
और कृति का मन-मस्तिष्क पर पड़ा प्रभाव है । मैथिलीशरण गुप्त की भाषा में कहूँ तो 'मूकमाटी' का पठन-पाठनमनन-अध्ययन करते-करते कोई स्वयं कवि बन जाए, यह सम्भाव्य है. अतिशयोक्ति नहीं। उसी की प्रेरणा का प्रतिबिम्ब मेरा मनोभाव है :
'मूकमाटी बोलती है/पर,/श्रवण की शक्ति अपने में सभी को जगाती है।/यह धरा की गूंज/नभ तक गूंजती है ।
और/हर स्वर/दे रहा सन्देश सब को‘त्याग छोड़ो मलिन तन का/भार सहना सीख लो तुम कुम्भ-सी तपन सीखो अग्नि में तुम कुम्भ-सी।'