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मूकमाटी-मीमांसा :: 105
संस्कृत की कोमलकान्त पदावली में भावों की स्रोतस्विनी, निर्मल प्रवाह में अनुभूतियों के स्वच्छ रूपों की अभिव्यक्ति को सन्त कवि ने सहज सुबोध और सुगम बनाया है, जिससे वह अभिव्यक्ति पाठक या श्रोता को सरलता से समझ में आ जाती है। प्रति पंक्ति का भाव कथा, उपकथा, संवाद या उपदेश के द्वारा कवि ने स्पष्ट रूप से समझाया है किन्तु पुनरावृत्ति से कवि बचा है। इसलिए श्रमण संस्कृतिमूलक धारणाओं को भी सहजता से समझा जा सकता है। कथा में कहानी-सी रोचकता, निर्जीव और सजीव पात्रों के संवादों में नाटकीयता तथा शब्दों के अर्थ की सरस व्यंजना इस महाकाव्य को सुनने-गुनने की आकांक्षा जाग्रत करती है । रसों की सरस व्यंजना, प्रकृति का सजीव चित्रण, अलंकारों का चमत्कारिक प्रयोग, भाषा का पद लालित्य और वाणी का अर्थगौरव 'मूकमाटी' को कलाकाव्य के आसन पर विराजमान कर देते हैं। युगचेतना की अभिव्यक्ति
आचार्यश्री ने निरपेक्ष द्रष्टा प्रवचनकार के रूप में समसामयिक मूल्यों पर निष्पक्ष दृष्टि डाली है। व्यक्ति के कुसंस्कार, समाज की विषमता, राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक पाखण्डों पर उन्होंने पर्याप्त कटाक्ष किए हैं। आप जब यह लिखते हैं कि “लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी/प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं" (पृ. ३८६), तब मनुष्य मात्र की नैतिकता पर प्रहार करते हैं। नेताओं के झूठे आश्वासनों पर उनका क्षोभ द्रष्टव्य है : “सूखा प्रलोभन मत दिया करो/...कपटता की पटुता को/जलांजलि दो।" (पृ. ३८७)। पंजाब, कश्मीर और असम में व्याप्त आतंकवाद के सम्बन्ध में कवि का सन्देश है : “सदय बनो !/अदय पर दया करो/अभय बनो !/...समष्टि जिया करो !"(पृ. १४९)। लोकतन्त्र के सम्बन्ध सम्बन्ध में कवि का अभिमत है कि “लोक में लोकतन्त्र का नीड़/तब तक सुरक्षित रहेगा/जब तक 'भी' (अनेकान्त) श्वास लेता रहेगा" (प. १७३), "प्राय: बहमत का परिणाम/यही तो होता है,/पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है" (पृ. ३८२)। राजनीतिक दलों की स्थिति पर कवि का चिन्तन है : “दलबहुलता शान्ति की हननी है ना!" (पृ. १९७)। सब के उदय की बात, 'जियो और जीने दो' की बात को नकारने वाले समाजवाद पर सन्त कवि की धारणा है : “प्रचार-प्रसार से दूर/प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है।/समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे" (पृ. ४६१)। सन्त कवि ने धर्म के झण्डाबरदारों को उनके पाखण्डमय आचरण के लिए भर्त्सना की है : “चोरी मत करो, चोरी मत करो/यह कहना केवल/धर्म का नाटक है'' (पृ. ४६८)। युगजीवन की ऐसी अनन्त विचारणाओं पर कवि ने अपने मन्तव्य व्यक्त किए हैं। विवेचना
'मूकमाटी' आधुनिक युग का श्रेष्ठ सांस्कृतिक महाकाव्य है । सन्त-कवि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने श्रमण संस्कृति के संरक्षण के व्याज से मानव संस्कृति की संरक्षा का दायित्व ग्रहण किया है और साम्प्रदायिक संकीर्णता से परे रहकर उदार दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति को अभिव्यक्त किया है । चेतन-अचेतनों में आत्मा का संचार करके कवि ने मूकमाटी की प्रतीकात्मकता को प्राणीमात्र की मुक्ति-यात्रा का रूपक बना दिया है । कुम्भकार शिल्पी पथ-प्रदर्शक गुरु है, मंगल घट सांस्कृतिक गुरु तथा श्रेष्ठी परिवार कर्मबद्ध आत्मा है । बाधक है आतंकवाद, जो अहिंसा के द्वारा हृदय को परिवर्तित कर नीराग साधु के सान्निध्य में श्रमण साधना को अपनाकर शाश्वत सुख पाना चाहता है।
कवि का मन्तव्य कथाछलेन जैन सिद्धान्तों का प्रकाशन है । कथा का कलेवर क्षीण है, प्रासंगिक कथाएँ उपदेशात्मक हैं, निर्जीव पात्रों का चित्रण नाटकीय है, संवादों में विभिन्न विषयों की परिभाषाएँ दी गई हैं, जो बोधगम्य होकर भी परम्पराओं का नव-मूल्यांकन करती हैं।
आचार्यश्री सन्त हैं, बहुज्ञ हैं, बहुश्रुत हैं और संयमशील कवि हैं। उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा है, बहुत कुछ लिखा