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मूकमाटी-मीमांसा :: 121 गलन ही तो अहम् का तिरोहण है। जो इसको हँसकर सहन कर लेता है, वही नमन के योग्य बनता | जहाँ मन न रहे, तो पूर्ण तटस्थ स्थिति प्रज्ञता है । बदले की आग और अहम् ही मनुष्य के पतन की निशानी है :
" बदले का भाव वह दल-दल है / कि जिसमें
बड़े-बड़े बैल ही क्या, / बल-शाली गज-दल तक बुरी तरह फँस जाते हैं ।" (पृ. ९७)
बदले का भाव तो राहु है जिसमें आत्मा का उत्तम भानु भी ग्रसित हो जाता है। इसी सन्दर्भ में कवि शूलों के महत्त्व को प्रतिपादित करता है एवं शूलों के दृढ़ मनोबल का उत्तम चित्रण प्रस्तुत करता है । संसारी जीवों की भोगासक्ति की चर्चा कर, उसके विनाशी परिणामों को समझाता है। शिव द्वारा कामदेव को जला देने का उत्तम उदाहरण इस तथ्य के समर्थन में प्रस्तुत कर जैन आचार्य कवि अपनी समन्वय दृष्टि का परिचय देता है ।
कृति में शिल्पी गुरु है जो सदैव दया, क्षमा का ही समर्थक है । कवि ज्ञान के साथ उसके उपभोग यानी चारित्र विशेष महत्त्व देता है। ज्ञान प्रयोगात्मक होकर जब जीवन में उतरे तभी उसकी महत्ता है, अन्यथा कथनी-करनी का भेद सत्य को फलवान् नहीं होने देता :
"बोध में आकुलता पलती है / शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है । " (पृ. १०७)
इस प्रकार मनुष्य का मन ही समस्त सुख-दुःख का कारण होता है। सुख-दुःख वस्तु में नहीं, मन में होता है । वे मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन करते हुए कहते हैं :
" मन्त्र न ही अच्छा होता है / ना ही बुरा अच्छा, बुरा तो / अपना मन होता है स्थिर मन ही वह / महामन्त्र होता है / और
अस्थिर मन ही / पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है,
एक सुख का सोपान है / एक दु:ख का 'सो' पान है ।" (पृ. १०८ - १०९ )
वास्तव में मनुष्य पर-पदार्थों के प्रति ही अधिक मोहित व प्रभावित हो रहा है । यही उसके दुःख का मूल कारण है । कवि इसी सन्दर्भ में साहित्य की व्याख्या प्रस्तुत करता हुआ उत्तम साहित्य व स्वाध्याय का महत्त्व प्रतिपादित करता है । कवि की आत्मा इस समय अधिक मुखरित है, तभी तो वह कहता है :
" प्रवचन - काल में प्रवचनकार, / लेखन - काल में लेखक दोनों लौट जाते हैं अतीत में ।” (पृ. ११३)
कवि वर्तमान राजनीतिज्ञों की पद लालसा पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूकता। सत्ता, शान्ति की समर्थक -- यही उसकी अभिलाषा है, सन्देश है । प्रत्येक कार्य में सफलता तभी मिलती है जब आस्था की आधारशिला मजबूत हो। यही आस्था पत्थर को भी प्रतिष्ठित करती है :
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" वही निष्ठा की फलवती प्रतिष्ठा / प्राणप्रतिष्ठा कहलाती है ।" (पृ. १२० )
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'आस्था का दर्शन आस्था से ही सम्भव है / न आँखों से, न आशा से ।" (पृ. १२१ )