________________
130 :: मूकमाटी-मीमांसा
सेठ पूजा कार्य को प्रसन्नता से करता है और इसी प्रसंग में कवि मुनि के आहार की पूरी चर्या का वृत्तान्त, विधि आदि समझा देते हैं। भाग्यशाली सेठ के यहाँ मुनि आहार का सुयोग बनता है और धन्य हो जाता है सेठ का जीवन । दाता का गुण विवेक होना चाहिए। तभी दान की सार्थकता है । विवेकी व्यक्ति के गुण मानव के उत्कर्ष के गुण हैं।
"पात्र से प्रार्थना हो/पर अतिरेक नहीं,/इस समय सब कुछ भूल सकते हैं/पर विवेक नहीं।...
अंग-अंग से/विनय का मकरंद झरे,/पर, दीनता की गन्ध नहीं।" (पृ. ३१९) आचार्य दानदाता के लक्षण और गुणों की विशेष चर्चा प्रस्तुत करते हुए हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं कि हम कैसे दाता बनें। मुनि को आहार देने का सौभाग्य सेठ प्राप्त करता है । मुनिश्री पूरी आहार की चर्या का आलंकारिक भाषा में वर्णन करते हैं । पड़गाहन से भोजन की समाप्ति तक की क्रिया इतनी सटीक व चित्रांकन पूर्ण है कि लगता है हम आहार को निकले एवं पड़गाहन स्वीकारते हुए, मुनि को आहार लेते व देते हुए मुनि व भक्तजन का चित्र ही निहार रहे हों । साथ ही मुनि की क्रिया-लक्षण का पुनः प्रस्तुतीकरण किया गया है । एक लक्षण देखिए :
"जिनके पास संग है न संघ,/जो एकाकी हैं, फिर चिन्ता किसकी उन्हें ?/सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं,
अष्टादश दोषों से दूर।” (पृ. ३२७) (यह प्रकरण मुनिचर्या के अन्तर्गत आराध्यभूत अरहन्त प्रभु का लक्षण है।)
मुनि तो इन्द्रियसंयमी हैं। उन्हें तो खट्टे-मीठे, रूक्ष-स्निग्ध पदार्थों से क्या मतलब ? उन्हें तो तपस्या में रत शरीर को ईंधन देना है । भूख तो मोह और असाता कर्म के उदय का परिणाम है। तभी वे कहते हैं :
"ज्ञान के साथ साम्य भी अनिवार्य है/श्रमण का श्रृंगार ही
समता-साम्य है।" (पृ. ३३०) आहार के इस प्रसंग में महत्त्वपूर्ण बात है कि सेठ के यहाँ स्वर्ण-रजतकलशों में विविध रस व्यंजन हैं, साधु की अँजुली इन कीमती घट पदार्थों के लिए नहीं खुलती । पर, मिट्टी के घट में भरे जल को देने की प्रक्रिया में अंजुली खुल जाती है। जो सौभाग्य रत्न रजत-स्वर्ण के घटों को नहीं मिला, वह मिट्टी के घट को प्राप्त होता है । सेठ की अंगुली पर शोभित रत्नजड़ित मुद्रिका आज धन्य हो गई मुनि के पाद-प्रक्षालन का सुयोग पाकर । कान के कुण्डल कपोलों पर दमकते हैं। स्पर्धा विकास के लिए उत्तम है पर उसमें अहम् के उत्पन्न होने की सम्भावना भी छिपी रहती है जो पतन का कारण बनती है । सेठ के ललाट की लट आगे आकर मानों मुनिवर से मुक्ति की याचना करती है । आहार की समाप्ति पर सेठ करबद्ध होकर पात्र से यही प्रार्थना करता है :
"आशु आशीर्वाद मिले/शीघ्र टले विषयों की आशा, बस!" (पृ. ३४४) मुनि भी संसार को जानने-देखने की, ज्ञाता-द्रष्टापन रूप दृष्टि का संक्षिप्त उद्बोधन देकर वन की ओर साधनार्थ विहार करते हैं । सेठ भी जैसे किसी चुम्बकीय शक्ति से आबद्ध हो - मुनि के पीछे-पीछे निकल पड़ता है । मुनि के द्वारा लौट जाने के संकेत पर भी वह लौटता नहीं । आत्म-आलोचना ही करता है । उनसे अनेक प्रश्न करता है । मुनि वात्सल्यमयी माँ की तरह प्रश्नों के उत्तर देकर उसकी शंकाओं का समाधान करते हैं। उनके वचनामृत से यही बोध नि:सृत होता है :