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मूकमाटी-मीमांसा :: 131
"अपने में लीन होना ही नियति है/...आत्मा को छोड़कर
सब पदार्थों को विस्मृत करना ही/सही पुरुषार्थ है।” (पृ. ३४९) अनेक उदाहरणों से समझकर सेठ वापिस लौटता है। सेठ की वेदना इस वियोग से अत्यन्त बढ़ गई है। उसकी दशा देखिए:
"सहपाठियों के समक्ष/पराभव-जनित पीड़ा से भी/कई गुनी अधिक पीड़ा का अनुभव हो रहा है/इस समय सेठ को। डाल के गाल का रस-चूसन/पूर्णरूप से छूटने से धूल में गिरे फूल-सम/आत्मीयता का अलगाव साथ ले
शेष रहे अत्यल्प साहस समेत/घर की ओर जा रहा सेठ"।" (पृ. ३५०) उसकी स्थिति माँ से बिछुड़े शिशु-सी दीन, वसन्त के अन्त पर दु:खी वृक्षावली एवं डूबते, दु:खी सूर्य-सी हो रही है। सेठ की स्थिति द्वारा मानों आचार्य कह रहे हैं कि सन्त समागम के पश्चात् ऐसा ही वैराग्य भाव एवं संसार के प्रति निर्मोह उत्पन्न होना चाहिए।
कुम्भ के उपदेश मानों स्वयं आचार्य के उपदेश हों, जो सेठ को नहीं, हम सबको दिए जा रहे हैं। कैसा परिवर्तन ! सेठ सारे वैभव का त्याग कर माटी के घट को स्वीकार करता है । कुटुम्ब के लोग भी उसका समर्थन करते हैं, वैभव का नहीं। कवि मृत्तिका घट से ईर्ष्या, मान करने वाले स्वर्ण-रजत-रत्नघटों की ईर्ष्यापूर्ण मन:स्थिति का प्रभावक ढंग से आत्मकथन शैली में वर्णन करता है । घट निर्जीव न रहकर मानों देहधारी, राग-द्वेष से पीड़ित दृष्टिगत होते हैं। कवि यहाँ मनुष्य का मूल्यांकन उसके कर्मों से एवं सद् व्यवहार से करना चाहता है, मात्र कुल या जाति से नहीं, जो कवि का विशाल राष्ट्रीय दृष्टिकोण ही है :
"उच्च-उच्च ही रहता/नीच-नीच ही रहता/ऐसी मेरी धारणा नहीं है, नीच को ऊपर उठाया जा सकता है,/उचितानुचित सम्पर्क से सब में परिवर्तन सम्भव है ।/परन्तु ! यह ध्यान रहेशारीरिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि/सहयोग-मात्र से नीच बन नहीं सकता उच्च/इस कार्य का सम्पन्न होना
सात्त्विक संस्कार पर आधारित है।" (पृ. ३५७) 'रज' इसलिए पूज्य है कि वह पूज्य चरणों से सेवित रज है । पर रज का स्थान च्युत होना दुःखदायी भी बनता है । आचार्य श्रमण के गुणों की चर्चा करते हुए उसे समतावान् अभयदाता बताते हैं और श्रमण तो श्रम-संस्कृति का जनक-पोषक एवं प्रेरक हैं-'श्रम करे सो श्रमण' (पृ. ३६२) । अरे ! धन के अभिमानी घट सन्त पर भी पक्षपात के आरोप लगाने से नहीं चूकते । अरे ! वह क्या जानें मूल्यवान् वस्तुओं का उपयोग- ऐसा परिहास भी करते हैं। पर ये बहुमूल्य अनुत्पादक घट क्या जानें मिट्टी की महिमा को ! जो कभी द्रवित ही नहीं हुए :
"दुखी-दरिद्र जीवन को देखकर/जो द्रवीभूत होता है
वही द्रव्य अनमोल माना है।" (पृ. ३६५) माटी तो अपने गर्भज बीज को स्वयं टूट कर भी पनपने का अवसर देती है। फिर धन की संगति प्रायः व्यक्ति को दुर्गन्धयुक्त, स्वार्थमयी ही बनाती है । यहाँ आचार्य युगद्रष्टा कवि की भूमिका में वर्तमान पूँजीवाद, उसके दुखद