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मूकमाटी-मीमांसा :: 129 ...अध्यात्म स्वाधीन नयन है/दर्शन पराधीन उपनयन ...स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है ।/अनेक संकल्प-विकल्पों में व्यस्त जीवन दर्शन का होता है। ...दर्शन का आयुध शब्द है-विचार,/अध्यात्म निरायुध होता है
सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार !" (पृ. २८८-२८९) इस परिचर्चा में आचार्य अध्यात्म को ही दर्शन से श्रेष्ठ व आत्म कल्याणकारी मानते हैं।
प्रात:काल कुम्भकार अवा के पास जाता है। 'कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता' कह उल्लास से अवा पर जमी राख को हटाता है। कुम्भ के दर्शन कर प्रसन्न होता है । अग्नि से तपकर उसका रंग भले ही काला पड़ गया - पर, उसके शरीर से एक आभा फूटती है । आचार्य मानों इंगित करते हैं कि तपने के बाद देह मलीन हो जाय, पर आत्मा की पवित्रता की चमक चेहरे पर दिखती है । कुम्भ में पवित्रता है, भक्तिभाव है। आचार्य इस छोटे से प्रसंग की गरिमा मुनि के चरित्र की, दिनचर्या, परीषह सहनशीलता आदि का वर्णन कर मानों पूरे आचारांग की प्रस्तुति ही कर रहे हैं। लोगों को भी सच्चे मुनि के स्वरूप, व्यवहार, आचार-विचार से अवगत करा रहे हैं। मुनि का संयम इन्द्रियविजयी होना, सिंह वृत्ति के साथ अहिंसक वृत्ति, निर्लोभ, अपरिग्रही होने आदि गुणों का कथन प्रस्तुत किया है।
घट की कथा के साथ कवि एक सेठ की स्वप्न से लेकर अन्तिम अवस्था तक की कथा को प्रस्तुत कर कृति को रोचक तो बनाता ही है, वह विविध प्रसंगों की योजना द्वारा मिट्टी के कुम्भ की महत्ता, उसकी श्रेष्ठता को भी सिद्ध करता है। इस पूरे प्रसंग में धर्म की श्रद्धा केन्द्र में है। सेठ का नौकर कुम्भकार के यहाँ कुम्भ को ठोंक-बजाकर लेने जाता है । पर विडम्बना तो यह है कि जो परीक्षक बनता है, वह स्वयं परीक्षा से नहीं गुज़रता है। तात्पर्य यह कि परीक्षक को पहले परीक्षा देना चाहिए, अन्यथा उसे उपहास का पात्र बनना पड़ेगा । घट को परीक्षण के लिए बजाने पर उसमें से संगीत के सप्त स्वर ध्वनित होते हैं। कवि उस सरगम का भी आध्यात्मिक अर्थ यही करता है कि 'दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता।' और कितनी सारगर्भित व्याख्या करते हैं :
"इन सप्त-स्वरों का भाव समझना ही/सही संगीत में खोना है
सही संगी को पाना है।" (पृ. ३०५) कुम्भ के इस ज्ञान का श्रेय शिल्पी को है, जिसको वह स्वीकार करता है। अपनी कालिख को वह श्रेयस्कर ही मानता है जिसमें से निकलते तबले के स्वर आनन्द प्रदान करते हैं। कुम्भकार से ग्राहक कुम्भ खरीदकर उसका दाम देना चाहता है पर कुम्भकार ग्राहक से लेन-देन के व्यापार को हेय समझकर पैसे लेने से इनकार करता है। आचार्य पुनः ग्राहकव्यापारी के, धन आदि के सम्बन्धों की चर्चा करते हैं। स्वस्तिक की व्याख्या द्वारा चतुर्गति का वर्णन करते हैं। ग्राहक कुम्भ को सेठ जी के घर ले जाता है। उस पर कुंकुम का पुट दिया जाता है । मुख पर चार पान सजाए जाते हैं। श्रीफल रखा जाता है, हल्दी-कुंकुम छिटके जाते हैं । कुम्भकार का जैसे जीवन ही धन्य हो गया हो । अरे ! जटा हटाने पर श्रीफल की ऊर्ध्वमुखी चोटी मानों उसे मुक्ति फलप्रद बना रही है। नारियल को अपनी कठिनता पर क्षोभ है पर कितनी श्रेष्ठ सूक्ति से बात समझाई गई है :
"मृदुता और काठिन्य की सही पहचान तन को नहीं,/हृदय को छूकर होती है।" (पृ. ३११)