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मूकमाटी-मीमांसा :: 127
रहे संघर्ष को 'स्टार वार' की तुलना देकर नए कवियों के बिम्ब, प्रतीकों को भी लजा देता है । घट को फोड़ने के लिए उद्धत ओलों से वर्षा के कण रक्षा करते रहे घट की। अपनी कम, पर दृढ शक्ति से लड़ते रहे अन्यायी से । कवि इन वर्षा एवं भूकणों की माँ के साथ तुलना करता है जो अपने शिशु की सूक्ष्मतम सिसकन को भी जानती ही नहीं, अनुभव भी करती है, महसूस करती है।
अत्यन्त दुख का सामना कणों ने किया । वे घट को बचाते रहे । अति संकट, उपसर्ग दृढ़मन के व्यक्ति को भी डिगा देते हैं । यह वास्तविकता कवि भूला नहीं है :
“अति-परीक्षा भी प्रायः/पात्र को विचलित करती है पथ से ।" (पृ. २५४) दुष्टों पर हिंसात्मक प्रहार न किया जाय, यही तो मनुष्य की मानवता के विकास की उपलब्धि है :
"विकट से विकटतम संकट भी/कट जाते हैं पल भर में;
आप को स्मरण में लाते ही/फिर तो प्रभो!" (पृ. २५६) पुन: मन्द शीतल पवन का संचार हुआ । गुलाब मुदित होकर झूमने लगा । फूल ने पवन को प्रेम से नहला दिया। मनुष्य को सदैव पर के उपकार का माध्यम बन करके ही जीना चाहिए। तभी सुरभि सर्वत्र प्रसारित हो पाती है । यही भाव, पर के प्रति अन्तर की ग्लानि को विगलित कर देता है । पवन ने पुन: बादलों के आक्रमण की सम्भावना देखी तो अपनी शक्ति का उपयोग कर उन्हें तितर-बितर कर दिया । स्वच्छ आकाश का सौर मण्डल जैसे धरती की स्तुति करता
"धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, और/हम सब की
धरती में निष्ठा घनी रहे, बस ।” (पृ. २६२) कवि की लेखनी जैसे नए आकाश और भानु की नई किरण से आह्लादित बन उठी। कलम चित्रकार की कूँची बनकर शब्दों-चित्रों द्वारा चित्र ही आँकने लगी। नवीनता का यह बोध सचमुच कविता और भावों की नवीनता भरता है। नए भावों की किरणें हृदय में नावीन्य का भाव अंकुराती हैं। कुछ पंक्तियाँ देखिए :
"नया योग है, नया प्रयोग है/नये-नये ये नयोपयोग हैं नयी कला ले हरी लसी है/नयी सम्पदा वरीयसी है
नयी पलक में नया पुलक है/नयी ललक में नयी झलक है।" (पृ. २६४) परीषहजन्य वातावरण में घट सुरक्षित रह कर मानों कुम्भकार को समझा रहा है :
"परीषह-उपसर्ग के बिना कभी/स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि
न हुई, न होगी/त्रैकालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६) कुम्भकार भी आश्चर्यचकित है घट की इस शक्ति, आस्था एवं बुद्धि को देखकर । कुम्भकार घट को चेतावनी देता हुआ उठता है कि तीर पर पहुँचने के लिए तुम्हें अपने ही हाथों तैरना पड़ेगा। आग की नदी पार करना होगी। घट, जो अब सुख-दु:ख में स्थितप्रज्ञ है, जिसमें मुक्ति यात्रा की चाह जाग उठी है, वह कहता है :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा