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128 :: मूकमाटी-मीमांसा
भेद से अभेद की ओर / वेद से अवेद की ओर
बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए / अन्यथा, / वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७)
कृतिका चतुर्थ खण्ड वृहदाकार है । 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक वाला यह खण्ड जीवन में तप और सिद्धि का परिचायक है । खण्ड का प्रारम्भ ही संयम - असंयम जीवन की तुलना से होता है । कवि संयम की श्रेष्ठता को ही सर्वोपरि सिद्ध करते हुए कहता है :
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“नियम-संयम के सम्मुख / असंयम ही नहीं, यम भी अपने घुटने टेक देता है।" (पृ. २६९)
घट की जीवन यात्रा आगे बढ़ती है। अब उसे अग्निज्वाला की नदी पार करना है। परीक्षण में खरा उतरना है। घड़े को पकाने के लिए अवा भी लगाया, सजाया जा रहा है। इस प्रसंग में कवि बबूल की लकड़ी के कड़ेपन में पश्चाताप भर देता है । उसे समझा कर मानों जीवन की कड़ी गाँठों के प्रति व्यक्तियों को पश्चाताप करने को प्रेरित करता है और वर्तमान में गणतन्त्र के नाम पर पनप रहे धनतन्त्र एवं मनमाने 'तन्त्र' की स्थिति पर प्रकाश डालता है। आज के न्यायतन्त्र की विलम्ब नीति, शिथिलता को भी वे अंकित करते हुए यही समझाते हैं कि बल का सही उपयोग निर्बल की मदद करना है, उन्हें सताना नहीं :
" निर्बल - जनों को सताने से नहीं, / बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है ।" (पृ. २७२ )
और वह व्यक्ति भी तो दोषी ही है अन्याय सहन करता है, उठता नहीं । कुम्भकार अवा के द्वार पर अग्नि प्रकट करने के प्रयास करता है पर अग्नि जलती नहीं । अग्नि को स्वयं वेदना है जलाने की। दूसरों को जला कर वह परीक्षा की निर्णायक बनती है, पर वह खुद अपनी परीक्षा कैसे दे ? अग्नि के इस मनोमन्थन - युक्त भाव - भाषा को जानकर कुम्भ जैसे उपदेशक की भूमिका में प्रस्तुत होकर अग्नि को समझाता है कि मेरे दोषों को जलाने में कोई दोष नहीं । उलटे मुझे तपाकर तुम इस योग्य बनाओगे कि मैं लोगों को शीतल जल प्रदान कर उनकी तृषा शान्त कर सकूँगा । बंस ! अग्नि का मन शान्त हुआ । घट की भलाई के लिए वह जलती है। इधर अवा के दृश्य को कवि ने चित्रात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हुए उसके धुएँ एवं ज्वाला आदि का वर्णन तो किया ही है, उसके साथ प्राणायाम की यौगिक क्रियाओं का
वर्णन किया है। साथ ही साथ निरोगी शरीर और मन की चर्चा भी की है । अग्नि की ज्वालाओं का रस घट का प्रक्षालन करता है । उसका ‘ता‘``मस समता' में परिवर्तित हो जाता है । वह प्रभु से निरन्तर प्रभुमय बनने की प्रार्थना करता रहता है । उसकी प्रार्थना पर अग्नि की वाणी का मर्म कवि प्रस्तुत करता है और ध्यान की महत्ता को समझाते हुए कहता है कि 'शव से शिव' बनना ही ध्यान की परमोत्कृष्ट स्थिति है ।
कवि अग्नि एवं घट के कथोपकथन द्वारा दर्शन के कुछ गम्भीर पहलुओं को भी सरलता से समझाता है। घट अग्नि से दर्शन और अध्यात्म के भेद, उनके कार्य-कारण सम्बन्धों पर प्रश्न करते हुए प्रश्न पूछता है कि किससे तृप्ति और मुक्ति मिलती है ? प्रश्नों के उत्तर अग्नि के द्वारा आचार्यश्री दिलवाते हुए कहते हैं :
"दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित अध्यात्म का झरना झरता है ।
हृदय से