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मूकमाटी-मीमांसा :: 123 गर यक़ीन हो/नमकीन आँसुओं का/स्वाद है वह !" (पृ. १५५) कवि दर्शन और हृदय के भावों का अनूठा सामंजस्य प्रस्तुत करते हुए वस्तु के मूल स्वभाव की चर्चा करता है। पर-भाव उसको विकृत भले ही कर दें पर मूल स्वभाव को बदल नहीं सकते। वे शान्त रस, करुण रस एवं वात्सल्य भाव इत्यादि को पूरी भावना से समझाते हैं। कवि दुग्धानुपान करते बालक का शब्द चित्र प्रस्तुत कर वात्सल्य को समझाते ही नहीं वरन् उसको मानों जीते हैं। जीने का मन्त्र देते हैं। कितनी सरल, पर हृदयस्पर्शी व्याख्या प्रस्तुत की है :
"करुणा-रस उसे माना है, जो/कठिनतम पाषाण को भी/मोम बना देता है, वात्सल्य का बाना है/जघनतम नादान को भी/सोम बना देता है। किन्तु, यह लौकिक/चमत्कार की बात हुई,/शान्त-रस का क्या कहें, संयम-रत धीमान को ही/'ओम्' बना देता है। जहाँ तक शान्त रस की बात है/वह आत्मसात् करने की ही है कम शब्दों में/निषेध-मुख से कहूँ/सब रसों का अन्त होना ही
शान्त-रस है।” (पृ. १५९-१६०) आचार्य दार्शनिक दृष्टि से संसार की व्याख्या भी नए बिम्ब एवं प्रतीकों से समझाते हैं।
कुम्हार माटी में जल मिलाकर उसे छूता है । जिससे माटी के अंग-अंग में पुलकन-सिहरन दौड़ जाती है । संवेदनशील भोग्या माटी में आनन्द-उल्लास भर देता है।
माटी चाक पर घूम-घूम कर ऊपर उठती है। नए रूप को ग्रहण करती है । शिल्पी हाथ में उठाकर उसे स्वरूप प्रदान करने के लिए सोटे से खोट पर चोट भी करता है । यहाँ शिल्पी का लक्ष्य चोट करना नहीं अपितु खोट सुधारना है। कवि पुन: बौद्धिक दृष्टि के प्रयोग से ९ के अंक की पूर्णता का चमत्कार प्रस्तुत करता है । लगता है कवि कविता और गणित के पारस्परिक सम्बन्ध को जोड़ कर ३६३, ६३ या ३६ के अंकों द्वारा समन्वय व विरोध के मनोभावों को भी गणित के आधार पर अभिव्यक्त करता है। ये अंक सज्जन व दुर्जन की पहचान के प्रतीक हैं। कवि आज के विश्वासघाती मनुष्य पर, उसकी विश्वासघाती वृत्तियों पर चोट करते हुए लिखता है :
"सिंह और श्वान का चित्रण भी/बिना बोले ही सन्देश दे रहा है।" (पृ. १६९)
शेर कभी पीछे से आक्रमण, प्रहार नहीं करता जबकि श्वान पीछे से काटता है :
"श्वान-सभ्यता-संस्कृति की/इसीलिए निन्दा होती है/कि वह अपनी जाति को देख कर/धरती खोदता, गुर्राता है । सिंह अपनी जाति में मिलकर जीता है,/राजा की वृत्ति ऐसी ही होती है,
होनी भी चाहिए।" (पृ. १७१) इसी सन्दर्भ में कवि कछुआ और खरगोश के उदाहरण देकर साधक की दशा-स्थिति का चित्रण करता है। और आगे की सरलतम व्याख्या द्वारा 'ही' से 'भी' की ओर मुड़ कर परस्पर प्रेम के सन्देश की गाथा की उद्घोषणा करता है । कवि आत्मालोचना करते हुए स्वयं को 'दो गला' कह कर मानों प्रतिक्रमण द्वारा आलोचना ही करके सभी को आत्मालोचन द्वारा स्वयं परिशुद्ध होने का मार्ग प्रशस्त करता है । यही भाव मनुष्य को तप की ओर उन्मुख करता है । यही