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मूकमाटी-मीमांसा :: 113 रेखांकित पदों से रचनाकार की आस्था ही नहीं, पथ के भी संकेत मिलते हैं। अनुभूति का वैखरी में उतरने का एक निश्चित क्रम है, जो श्रद्धा (आस्था) विश्वास से सहकृत होकर ही रचनाकार के इच्छित विशिष्ट को आकार देता है। परा, पश्यन्ती एवं मध्यमा के स्तरों को पार किए बिना वह सम्भव कहाँ है ? इसीलिए एक पूरा अध्याय ही बोध एवं शोध की प्रक्रिया की गुत्थियों को सुलझाता हुआ, सहृदय की चेतना के त्रिविध स्तरों को छूता एवं मानवीय मंगलाशा का विधान करता है । इस रूप में वह मानवीय विवेक की अछूती परतों का स्पर्श करता हुआ, नए भावबोध को वहाँ जड़ के भी सूक्ष्मतम चेतना संस्कारों को सहज बोधगम्यता से जोड़ता है । स्पष्ट ही 'मूकमाटी' की प्रत्येक पंक्ति सायास नहीं, सहज बोध एवं सहजानुभूति से जुड़ी है। वहाँ न अलंक्रिया का प्रयास है और न बाह्य चाकचिक्य के मोह में बातों को विशेष भंगिमा से कहने का प्रयत्न । बल्कि परा की सीधी, सहज, शिव एवं सुन्दर अभिव्यक्ति ही काम्य है । महान् रचनाकार के पास इतना महत्त्वपूर्ण, सूक्ष्म एवं गम्भीर कहने को होता है कि शब्दों को उनके अभिप्रायों के अनुरूप स्वयं एवं अहंपर्विव कया पीछे-पीछे दौडना पडता है। "ऋषीणां पनराद्यानां वाचमर्थोऽनधावति"- भवभति ने यह ठीक ही कहा था । 'मूकमाटी' में ऐसा पद-पद पर मिल रहा है। आचार्यश्री को इतना अधिक देने की लालसा है कि शब्द योजना, वाक्य क्रम एवं काव्यात्मकता के सन्दर्भ में बहुत कुछ देखने का न अवसर है और न अनिवार्यता ही, क्योंकि जब वाणी स्वयं उनकी अभिव्यक्ति का अनुगमन करती हो, स्वत: ही वहाँ गुण, अलंकार, रस, ध्वनि का समावेश इतने सहज ढंग से बनता जा रहा है कि यदि कोई चाहे तो उस दृष्टि से भी उसका अध्ययन, विश्लेषण कर सकता है। पर मेरा स्पष्ट मत है कि प्रचलित काव्यात्मक धारणाओं से ऊपर उठकर इस कृति को देखने से ही इस महान् रचना के प्रति न्याय हो सकेगा। काव्यशास्त्र के परमविशिष्ट आचार्य आनन्दवर्द्धन ने 'ध्वन्यालोक' में ठीक ही कहा है :
"प्रतायन्तां वाचो निमितविविधार्थामृतरसा न सादः कर्तव्यः कविभिरनवद्ये स्वविषये । परस्वादानेच्छाविरतमनसो वस्तु सुकवेः
सरस्वत्येवैषा घटयति यथेष्टं भगवती ॥” (४/१७) 'मूकमाटी' में चेतना बिम्बात्मक स्तर से लेकर मानसिक, बौद्धिक एवं चित्तीय ऊँचाई तक अलग-अलग स्तरों पर इस रूप में प्रसृत है कि कोई इसके बाह्य आकार से ही यदि परिचय पाकर लौट जाय तो उसे निश्चित ही कुछ भी हाथ न लंगेगा। पर ज्यों ही वह आभ्यन्तर परतों-दर-परतों से जुड़ेगा और जितनी बार जुड़ेगा तब व्यक्ति, समाज, नीति, अध्यात्म एवं व्यवहार आदि किसी भी स्तर पर उसे उत्तमोत्तम उपलब्धियाँ होंगी। हाँ, इतनी सावधानी आवश्यक है कि असद् आग्रह या तटस्थ भाव से न जुड़ा जाय । एक महान् पुरुष की वाणी में इस रचना को मात्र गौरव के कारण नहीं, बल्कि इसके रेशे-रेशे को तपाकर, छिन्न कर, कसौटी पर कसकर युग के महान् समीक्षक देखें:
"तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः । परीक्ष्यत्तद् वचो ग्राह्यं विद्वांसो नैव गौरवात् ॥" पृष्ठ३७०. दीपक ले चल सकता है.... -...-आँखें भी बन्द हो जाती हैं।
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