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मूकमाटी-मीमांसा :: 111 माटी की प्रतिपद पीड़क यात्रा के प्रत्येक स्तर के प्रति अवधानबद्ध होकर अनुभूति के स्तर पर प्रत्यक्षीकृत तत्त्व सम्पदा का शब्दों के सम्मूर्तन ‘मूकमाटी' में कम विस्मयावह नहीं । वास्तव में 'मूकमाटी' का रचना फलक अपने लिए नए आयाम का सृजन करता है । अतएव उसकी समीक्षा के लिए एक परमोदार समीक्षा दृष्टि की आवश्यकता बनती है । 'मूकमाटी' मानवीय विवेक की नई परतें खोलने का प्रयास है, जो उसे न केवल नए आयामों से परिचित कराती है अपितु जीवन विकास की विविध परिधियों की सीमाओं, सहजताओं, कठिनाइयों, साधनाओं एवं लक्ष्य के प्रति अवधानबद्ध यात्राओं को इस प्रकार अपने बीच बाँधती है कि अध्येता का मानस अपेक्षित दिशा में चलता हुआ रचनाकार के कथ्य का अनायास प्रत्यक्ष कर पाता है । उसका मस्तिष्क रचना की सहजता के साथ इतना एकमेक हो जाता है कि वह कविता पढ़ रहा है या कथ्य की सहजता का साक्षात्कार - यह अन्तर उसके आन्तर से अन्तर्हित होता हुआ कृति एवं कृतिकार से उसकी तन्मयता को जोड़ पाने में सफल होता है । और यह सब कुछ मूलतः रचनाकार के मूल संकल्प की अकृत्रिम अभिव्यक्ति की ही परिणति है जो अपने अध्येता को और सब कुछ (काव्य-अकाव्य, , लोकअलोक, सामान्य-असामान्य) से हटाकर कृति के लक्ष्य के प्रतिपल समर्पित होने में सहायता करती है ।
'मूकमाटी' परम्परित काव्यात्मक धारणाओं से आगे बढ़ कर अभिव्यक्ति देने वाली रचना है, जहाँ भाव, विचार, कल्पना एवं शैली के प्रति पाठक का आग्रह न होकर कृतिकार के कथ्य की ओर होता है । वह उसमें ढूँढ़ने में व्यस्त हो जाता है कि रचना कहना क्या चाहती है ? रचनाकार जीवन की किस अभेद्य ग्रन्थि का भेदन करना चाहता है ? मानवीय चेतना के किस स्तर पर खड़ा होकर वह किस रहस्य से उलझता एवं उसके द्वारा किस परिणाम पर पहुँच पाता है ? प्रायः रचनाकारों को काव्यात्मक प्रतिपादन के व्यामोह में लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित न होकर कलात्मक प्रदर्शन, उक्ति वैचित्र्य, अलंकृति, बिम्ब, प्रतीक एवं मिथक विधान में उलझते देखा गया है। ऐसे में कथ्य के प्रति उनका रुझान उस तरह का नहीं रह जाता जो कि काव्य का लक्ष्य, अभिव्यक्ति की अभीप्सा होनी चाहिए। 'मूकमाटी' के रचनाकार का प्रतिपादन निश्चित ही इस दिशा में भी अप्रतिम है । सब कुछ काव्यात्मक पद्धति पर होने पर भी न तो रचनाकार का अभिमान है और न कृति को काव्यात्मक बनाने का प्रयास ही । अपनी बात कही जा रही है, वह काव्यात्मक बने तो बने, सच्छन्द बने या स्वच्छन्द, अलंकृति है या अनलंकृत - जैसे भी हो मूल बात अध्येता त पहुँचनी चाहिए। इस अमानी स्थिति में मूल कथ्य को मान देने की यह पद्धति रचनाकार की अप्रतिम प्रतिभा की ओर संकेत करती है।
'मूकमाटी' का कथ्य साक्षी है कि वह परम्परित कथानकों की नव्य या प्राचीन श्रृंखला से सर्वथा भिन्न है । वास्तव में वह एक ऐसा कल्प है जो अन्वेषक मनीषा से माटी की आभ्यन्तर शक्ति, सीमा एवं विस्तार से जुड़कर घट के सांग सृजन एवं उपयोगिता तक जुड़ता एवं उसकी रचना में समाए रहस्य संभार का मानस एवं प्राज्ञ प्रत्यक्ष करता है । यदि कोई चाहे तो इस प्रकार के काव्य बन्ध को समासोक्ति पद्धति पर निर्मित महाकाव्य के रूप में ले सकता है, क्योंकि घट निर्मिति से सारी परीधियों में मृत्तिका एवं घट का ही यहाँ सहज संवेद्य स्वरूप कृति में पल्लवित है, जो 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन'; 'अग्नि की परीक्षा : चाँदीसी राख' जैसे शीर्षकों में सामने आता है। दूसरी ओर मानव को पूर्ण मानव बनने से पूर्व किस प्रकार तप, त्याग, संयम के क्रम में वैराग्य भावना की पुष्टि के लिए द्वादश अनुप्रेक्षाओं - अनित्यता, अशरणत्व, संसरण, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरत्व, लोक, बोधिदुर्लभत्व एवं धर्मानुप्रेक्षा से गुज़रते हुए पंच महाव्रतों - अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह से संयुक्त होना परमावश्यक होता है। यह न होने पर घट का सम्पूर्ण विकास जैसे अपुष्ट रह जाता है वैसे ही मानव का भी महामानवत्व समग्रता की उपलब्धि नहीं कर पाता । आचार्यप्रवर विद्यासागर की यह