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मूकमाटी-मीमांसा :: 117
निहारती हैं। प्रकृति कहीं पर भी शृंगार के स्रोत में विकृत नहीं बनती अपितु जीवन की स्वीकृति बनती है।
महाकाव्य में यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से कम से कम आठ सर्गों का विधान माना गया है । लेकिन इस महाकाव्य के चार ही खण्ड हैं। परन्तु चतुर्थ खण्ड के और भी उपखण्ड किए जा सकते थे। यद्यपि इस नियम का पालन तुलसीदासजी 'रामचरितमानस' में भी नहीं कर सके । उसमें भी सात ही काण्ड हैं।
प्रस्तुत कृति के चार खण्डों में माटी के प्रारम्भ से अन्त तक की जीवन यात्रा का लेखा-जोखा है। हम प्रत्येक खण्ड के सन्दर्भ में आगे विस्तृत विचार प्रस्तुत करेंगे। कवि ने खण्डों के नाम भी विशेष अवस्था के सन्दर्भ में दिए हैं।
महाकाव्य की काव्यशैली अछन्दस् है लेकिन उसकी प्रवाहमयता गम्भीर सलिला की भाँति प्रवाहित है । भाषा, मुनि विद्यासागर की तपःपूत वाणी की निर्बाध प्रवाहमयता लिए प्रवाहित हई है। शब्दों के शिल्पी कवि विद्यासागर उन्हें तराशते हैं और शब्दों का आकर्षण उनके विविध अर्थ, व्याख्याएँ, लोम-प्रतिलोम अर्थ कवि की अर्थान्वेषणी दृष्टि तो प्रस्तुत करते ही हैं, शब्दों में चमत्कार भी भर देते हैं। मुहावरे, कहावतें, देशज शब्द भी स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हुए हैं । अलंकार भावों को प्रस्तुत करने, समझाने में मददगार हुए हैं।
जहाँ तक कृति के उद्देश्य का प्रश्न है वह तो अथ से इति तक बिखरा पड़ा है। ऐसा लगता है जैसे मार्ग का प्रारम्भ ही मंज़िल के लिए हुआ है । संसार, दु:ख बन्धन हैं, इन सबसे ऊपर उठना ही जीवन साधना का ध्येय है । जैन दर्शन के सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को स्वयं का उद्धारक बनना होगा, जिसकी उपलब्धि साधना से ही सम्भव है । गुरु प्रवचन तो दे सकते हैं, उद्धार का वचन नहीं। उद्धार स्वयं को स्वयं का करना होगा। कृति के बारे में लक्ष्मीचन्द्र जैन ने बहुत ही योग्य कहा है अपने 'प्रस्तवन' में कि 'सन्त कवि विद्यासागरजी की प्रज्ञा और काव्य-प्रतिभा से यह कल्पवृक्ष उपजा है।' मैं इसे भाव काव्य या भावमय काव्य मानता हूँ।
मैंने प्रारम्भ से 'मूकमाटी' महाकाव्य को महाकाव्य की कसौटी पर परखने का संक्षिप्त प्रयास किया है । मैंने प्रत्येक खण्ड को अपने वैचारिक स्तर पर जैसा सोचा-समझा है, कृति को जिस तरह हृदयंगम कर सका हूँ, उसे ही अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
___ समीक्षा से पूर्व आचार्य मानतुंग का वह श्लोक स्मरण आता है कि विद्वानों के बीच हास्य का पात्र ऐसा अल्पश्रुत मैं क्या कह सकता हूँ ? लेकिन कृति के प्रति भक्ति, उसके काव्य की शक्ति स्वयं वाचाल बना देती है । वसन्त का सौन्दर्य जैसे कोयल को कुहका देता है, वैसे ही यह महाकाव्य किसी भी भक्त या कविहृदय को वाणी प्रदान करता है। इस दृष्टि से मूकमाटी को ही वाणी नहीं मिली है अपितु मेरे अन्तर्विचारों को भी वाणी मिली है।
कृति का प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' है। कृति का प्रारम्भ प्रकृति चित्रण से होता है। प्रात:काल का सुन्दर समय है, अभी सूर्य पूरा उगा नहीं है । कवि कल्पना करता है कि मानों माँ की मार्दव गोद में भानु करवटें ले रहा
"भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/लेटा है
माँ की मार्दव-गोद में,/मुख पर अंचल ले कर/करवटें ले रहा है।" (पृ. १) इसी तरह पूर्व दिशा की शोभा और लज्जा के घूघट में डूबती-सी कुमुदनी का रूप-चित्र बड़ा ही मनोहर है । तारों के डूबने में भी एक सजीव चित्र कवि ने खड़ा किया है। प्रात:काल का सन्धिकाल जैसे जीवन को सत्पथ का सन्देशा देता है। इसी समय सरिता तट की माटी धरती माँ के सम्मुख अपनी वेदना खोलती है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, "अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !