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'मूकमाटी' : धरा की अनुगूंज
डॉ. शेखर चन्द्र जैन पूज्य आचार्य विद्यासागर की लेखनी से विस्तृत भावकाव्य धारा का अनूठा उपहार 'मूकमाटी' काव्य साहित्य जगत् की अनुपम धरोधर ही सिद्ध होगी। इस कृति को भाव एवं कला की कसौटी पर कसने पर सिद्ध होता है कि दर्शन
और कला का कितना मनोहर सामंजस्य इसमें हुआ है । मुनि और कवि दोनों धर्मों का उचित निर्वाह हुआ है। दोनों साथ-साथ होते हुए भी परस्पर में किसी पर हावी नहीं। गंगा-जमुना की धाराएँ साथ होकर भी अपने-अपने अस्तित्व में स्वतन्त्र ही हैं। आचार्यश्री ने मूकमाटी को वाणी प्रदान की है जो धरती की अनुगूंज बन गई है। कृति में जीवन जीने की कला, जीवन की महत्ता, जीवन में धर्म का स्थान व महत्त्व, धर्म की श्रेय एवं प्रेय अवस्थाओं का सटीक प्रस्तुतीकरण हुआ है। साथ ही अछन्दस् पद लालित्य, भाषा का गरिमामयी रूप, नए बिम्ब एवं प्रतीक भावों को ऊर्ध्वगति प्रदान करते हैं। प्रकृति का सौन्दर्य बिखरा है जो चित्त को प्रसन्न एवं सत्कार्यों की ओर प्रेरित करता है । भाषा भावों की अनुगामिनी व सहगामिनी बनी है। यहाँ मैं समीक्षा की क्षमता का दावा नहीं करता परन्तु कृति ने मुझे दो-दो बार पढ़ने के लिए प्रेरित किया, मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा उसे ही अल्पज्ञ बुद्धि से प्रस्तुत कर अपनी भावांजलि प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृति की समालोचना में मैं प्रयत्न करूँगा कि आचार्य विद्यासागर और कवि विद्यासागर का व्यक्तित्व स्वतन्त्र ही रहे।
'मूकमाटी' अपने आप में अनूठा महाकाव्य है । जहाँ तक काव्यतत्त्व का प्रश्न है प्रथम दृष्टि से कुछ विशेष नहीं है । चन्द शब्दों में कहा जा सकता है कि माटी को खोदने से लेकर अवा में पकने तक घट की अपनी कहानी है। लेकिन माटी, कुम्हार एवं स्वर्ण आदि अन्य धातुओं के काल्पनिक पात्रों में कथोपकथन की आयोजना पूरे महाकाव्य को वाणी प्रदान करती है।
पात्रों में सजीवारोपण अलंकार योजना 'मूकमाटी' को भी सशरीर प्रस्तुत करते हैं। मिट्टी की यह त्यागमयी भावना कि खोदे जाने की चोटें खाकर भी वह घट का स्वरूप धारण करने हेतु कुटाई-पिटाई सहकर और अग्नि में तपकर इस योग्य बनती है कि वह मंगल घट का स्वरूप धारण कर सके, जिसका जल त्यागी अतिथि के आहार में उपयुक्त होकर धन्यता का अनुभव कर सके और तूफानी नदी की भँवर में फंसे हुए श्रद्धायुक्त मानव के उत्थान का निमित्त बन सके । उसकी यही त्याग भावना, स्वयं को मिटा कर विश्व कल्याण की भावना उसे स्वर्ण कलश से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना देता है । महाकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता है मूकमाटी के प्रतीक घट से समस्त जीवन का चित्र, जीवन की उपयोगिता
और आत्मा से परमात्मा बनने तक ऊर्ध्वगमन का मार्ग प्रशस्त करता है । सच तो यह है कि मूकमाटी के स्वर अधिक मुखरित हैं। पद दलित, नगण्य माटी भी नायिका के रूप में अंकित हो सकती है । सन्त के स्पर्श से माटी को चेतना मिली है तो कवि की अनुभूति ने उसे निर्मल वाणी प्रदान की है।
महाकाव्य के लक्षणों की कसौटी पर कसने पर भी एक सफल महाकाव्य की कोटि में इस कृति को प्रस्तुत किया जा सकता है । माटी या घट आदि सभी प्रतीक पात्र हैं लेकिन कवि की लेखनी ने उन्हें भी जीवित स्वरूप प्रदान किया और उनके चरित्र का विकास विशाल फलक पर उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ कमल की पाँखुड़ियों की तरह खुलती जाती हैं। कुम्हार, पिता या गुरु की भूमिका में है। सेठ आदि की कथा महाकाव्य की अवान्तर कथा है परन्तु घट की महत्ता के लिए वह महत्त्वपूर्ण है । आधिकारिक कथा के साथ यह प्रासंगिक कथा महत्त्वपूर्ण बन गई है। महाकाव्य सम्पूर्ण रूप से कथोपकथन शैली में प्रस्तुत है । कथोपकथन और कथा का विकास चरित्र का उद्घाटन तो करते ही हैं, कथा को आकर्षक जिज्ञासा भी प्रेरित करते हैं। प्रकृति चित्रण, जो महाकाव्य की विशेषता होती है, का अत्यन्त सुन्दर, वास्तविक वर्णन कवि ने किया है । साधना की आँखें प्रकृति के सौन्दर्य में सात्त्विक स्वरूप