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112 :: मूकमाटी-मीमांसा
महान् कृति उन तथ्यों को समेटती हुई मानव के सृजन के साथ ही उसकी सम्पूर्ण विकास सरणी को उजागर करती है। इस प्रकार 'मूकमाटी' न केवल घट की कथा है अपितु मानवीय विकास की कथा भी। 'मूकमाटी' न केवल नई कथ्य परम्परा स्थापित करती है अपितु अपने सृजन के लिए नई धरती भी तैयार करती है, अर्थात् नव गति, नव लय, ताल छन्द नव, सब कुछ नया-नया । वह एक नए भावस्पर्श एवं विवेक की पावन परिणति के स्पर्श से पुलकित रचना का आकार लेती है, जहाँ परम्परित लीक से हटकर अछूते उपमानों, अनास्वादित बिम्बों, अमृतकल्प प्रतीकों एवं भाव न केवल जीवन्त, नित्य नूतन किन्तु सर्वथा विश्वसनीय भावों की एक शृंखला मिलती है। हमारा पूर्ववर्ती संस्कार यदि किसी कृति में अपनी पूर्व प्रवर्तित शास्त्रीय सरणी को नहीं पाता तो निराश होकर नए को नकारने से नहीं चूकता। अतएव किसी अप्रतिम एवं सहज कृति में भी परम्परित रूप में प्राकृतिक परिदृश्यों, परिभाषित जीवन दर्शन, परम्परित सजन सम्बन्धी मान्यताओं का अनपालन. अलंकार विधान, शब्द साधना, साहित्य के आधारभत घिसे-पिटे सिद्धान्तों का संगमन जैसे तत्त्व को ढूँढ़ना चाहते हैं, जबकि 'मूकमाटी' जैसी रचनाएँ ऋषिकल्प महान् आत्मा की अकृत्रिम भाषा में सहज अभिव्यक्ति होती है, अर्थ जिसका अनुगमन करता है।
"ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति' (उत्तररामचरितम्-१/१०)- अर्थात् आचार्य विद्यासागर जैसे लोगों की रचनाएँ शब्द प्रधान होती हैं, अर्थ जहाँ उनके द्वारा अभिव्यक्त शब्दों का अनुगमन करता है । 'मूकमाटी' के शब्द अपने भीतर ऐसी ऊष्मा छिपाए चलते हैं कि सहृदय को पग-पग पर उसके विशिष्टार्थ की तहों तक पहुँचने के लिए एक बार मात्र पढ़ लेने से सन्तोष नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे-जैसे उसकी आवृत्तियाँ होंगी, नए अर्थ एवं आयाम प्रकट होकर मेधा की सतहों की शक्ति परीक्षा लेते-से लगते हैं कि हमने उसे कितने स्तर तक समझा एवं आत्मसात् किया। वास्तव में ऐसी रचनाएँ एक बार पढ़कर चुपचाप ग्रन्थालय की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं होतीं अपितु उनमें निहित सत्य एवं तथ्य को पाने की लालसा में उनका बार-बार आलोड़न करना होता है । 'मूकमाटी' मानवीय जीवन के सुधरे सृजन की गीता है, जिसका अनवरत अध्ययन एवं चिन्तन द्वारा उसके कथ्य का अधिगमन निश्चित ही साधक को विचार से व्यवहार तक की सारी परिधियों को प्रतिपद उजागर करेगा। कम से कम मैंने तो इसे इसी रूप में पाया है।
___ वैखरी वाणी में जो कुछ अभिव्यक्त होता है निश्चित ही वह मध्यमा का सहस्रांश भी नहीं होता । मध्यमा इसलिए कि पश्यन्ती के आश्रित होती है और पश्यन्ती स्वयं परा के, अतएव परा का मूल एवं स्वत: प्रकाश स्वरूप मात्र स्फुलिंग रूप में ही अपरा वाणियों का विषय बनता है। मूकता एक ऐसी रहस्यमयी स्थिति है, जहाँ परा का स्वत:प्रकाश अपने सम्पूर्ण रूप में विद्यमान होता है। ऐसे प्रकाश में अनुभति की सघनता इतनी संश्लिष्ट होती है कि अपरा वाणियाँ उसके विविध स्तर-सहृदय की आनुभूतिक, बौद्धिक एवं मानसिक ऊँचाई के क्रम में प्रकाशित कर पाती है। 'मूकमाटी' का सृजन ऐसा ही एक कल्प लगता है, जिसको जितनी बार पढ़ा जाय, जितने स्तरों में पढ़ा जाय, पाठक की आन्तर एवं बाह्य योग्यता के अनुसार एवं प्रतिवार अर्थों की विविध कुण्डलियाँ खुलती हैं । अत्यन्त धीर, गम्भीर क्रम में प्रवाहित इस रचना का सीधे शब्दों में न मूल्यांकन सम्भव है और न सपाट अनुभूति ही। भाव, विचार, कल्पना एवं बिम्ब विधान के विविध आकार इस रूप में यहाँ संश्लिष्ट मिलेंगे कि रचनाकार की आनुभूतिक गहराई, वैचारिक चिन्मयता एवं दिव्य कल्पना शक्ति पर आश्चर्य होना स्वाभाविक है । जैसा पहले ही कहा गया है कि 'मूकमाटी' का प्रत्येक अध्याय एक परम रहस्य छिपाए पड़ा है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ;' 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' जैसे संकेत मेरी बात को प्रमाणित करते हैं। स्वयं रचनाकार के शब्दों में :
"शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !!/विश्वास को अनुभूति मिलेगी अवश्य मिलेगी/मगर/मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !" (पृ. ४८८)