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मूकमाटी-मीमांसा :: 103 सौरमण्डल और भूमण्डल में अणुयुद्ध छिड़ गया-ऊपर अणुशक्ति काम कर रही, नीचे मनु की शक्ति विद्यमान । एक विज्ञान है । एक आस्था है। ऊपर वाले के पास केवल दिमाग है, वह विनाश का पाठ पढ़ सकता है (पृ. २४९) । इस प्रसंग में कवि ने विज्ञान की मानसिकता का बिम्ब खींचा है । अन्तरिक्ष युद्ध के परिणाम सर्वनाशकारी होंगे, कवि की यही धारणा है।
व्याकरण : आचार्यश्री व्याकरण के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। उनके मुख से शब्दब्रह्म निर्झर की भाँति अजस्रधारा में प्रवाहित होता है । शब्दों की व्युत्पत्तियों से, शब्द चमत्कार से अर्थ-बोध प्रतिष्ठापित करते हैं। 'मूकमाटी' में सैकड़ों स्थल ऐसे हैं जहाँ शब्दों की परतों से नवीन प्रसंगों की उद्भावना की गई है। बानगी देखिए- सहित का भाव ही साहित्य बाना है (पृ. १११); 'कुं यानी धरती, 'भ' यानी भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो, कुम्भकार कहाता है (पृ. २८); 'न अरि' नारी अथवा आरी नहीं, सो नारी (पृ. २०२); 'नि' यानी निज में ही, यति यानी यतन-स्थिरता है, अपने में लीन होना ही नियति है (पृ. ३४९); 'भू'-सत्तायां' कहा है ना, कोषकारों ने (पृ. ३९९); सृज्- धातु की भाँति, भिन्नभिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को जो निसर्ग किया, सो सृजनशील जीवन का अपवर्ग हुआ (पृ. ४८३)। व्यजंक भाषा-शैली
___ आचार्यश्री की भाषा इतनी सहज और लचीली है कि उसका अर्थबोध सामान्यजन को तो बोधगम्य है, पर विज्ञजनों के लिए मनन को बाध्य करता है। लोक प्रचलित मुहावरों, कहावतों, सूक्तियों और लोकोक्तियों का समावेश काव्य की पंक्तियों में जिस सहजता से किया गया है, वह कुशल भाषाशास्त्री को सरस वाणी का अभिसार है । लयमयी मुक्तछन्दों की सरिता कहीं रागमयी बन क्षिप्रता से बह निकलती है तो कहीं मृदु, मन्द मन्द, मन्थर मन्थर गति से भाव गम्भीरता में लीन हो जाती है। “कछुए की चाल चलना, शतरंज की चाल चलना, मन की बात मन में रहना, दोगला होना, लक्ष्मण रेखा" जैसे मुहावरे लयमयी भाषा के मुखौटे हैं। “पूत का लक्षण पालने में" (पृ. १४ एवं ४८२), "नाक में दम कर रक्खा है" (पृ. १३५), "नया मंगल तो नया सूरज' (पृ. २६३), "बहता पानी और रमता जोगी" (पृ. ४४८), "श्वान का श्वान को देखकर गुर्राना" (पृ. ७१)- जैसी कहावतों से भाषा का शृंगार हुआ है। "बायें हिरण दायें जाय-लंका जीत राम घर आय” (पृ. २५), "आधा भोजन कीजिए, दुगुणा पानी पीव, तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी, वर्ष सवा सौ जीव" (पृ. १३३), "माटी, पानी और हवा, सौ रोगों की एक दवा" (पृ. ३९९), "बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख' (पृ. ४५४) जैसी लोकोक्तियों ने भाषा को व्यंजक बना दिया है। "जैसी संगति वैसी मति” (पृ. ८), "आस्था के बिना रास्ता नहीं, मूल के बिना चूल नहीं" (पृ. १०), "पापी से नहीं, पाप से, पंकज से नहीं, पंक से, घृणा करो" (पृ. ५०), "वसुधैव कुटुम्बकम्” (पृ. ८२), “आमद कम खर्चा ज्यादा, लक्षण है मिट जाने का, कूबत कम गुस्सा ज्यादा, लक्षण है पिट जाने का" (पृ.१३५), "नाक में दम कर रक्खा है" (पृ. १३५), "उत्पाद-व्यय धौव्य-युक्तं सत्/...आना जाना लगा हुआ है" (पृ. १८४ -१८५), "अर्थ की आँखें, परमार्थ को देख नहीं सकतीं'(पृ. १९२), "वेतन वाले वतन की ओर, कम ध्यान दे पाते हैं, और चेतन वाले तन की ओर, कब ध्यान दे पाते हैं" (पृ. १२३), "श्रमण का शृंगार ही समता-साम्य है" (पृ. ३३०) जैसी सूक्तियाँ भाषा को व्यंजित कर रही हैं । वर्ण-विपर्यय, वर्ण-विच्छेद, शब्द-विग्रह, शब्द-विलोम, पदच्छेद और शब्द क्रीड़ा की वाग्विदग्धता से आचार्यश्री ने पद लालित्य के द्वारा 'मूकमाटी' में अर्थ चमत्कार उत्पन्न किया है । यथा- 'दया-याद, राही-हीरा, खराराख, लाभ भला, नदी-दीन' में वर्ण-विपर्यय द्वारा; 'नारी-न+अरि, गद+हा, कम+बल, नम+न, तप+न, महि+ला, अब+ला, धर+ती, तीर+थ' जैसे रूपों में पद-विच्छेद के द्वारा तथा 'मर+हम, कु+मा+री, काय+रता, दो+गला' जैसे रूपों द्वारा शब्द-वैचित्र्य उत्पन्न किया है, जिससे अर्थ चमत्कृत हो उठा है । काव्यरूप होने से मुक्त छन्दों का प्रवाह तो लयात्मक है ही, साथ ही दोहा, वसंततिलका जैसे मात्रिक, सममात्रिक और अर्द्ध सममात्रिक छन्दों का