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'मूकमाटी' : एक सोद्देश्य महाकाव्य
डॉ. एन. चन्द्रशेखरन नायर आचार्य श्री विद्यासागरजी एक कवि से बढ़कर श्रेष्ठ जैनाचार्य हैं जो अपने धर्माचरण में निष्ठावान् और तदनुसार कठोर तपस्वी हैं। प्रज्ञाचक्षु, तपस्यारत आचार्यजी कवि कल्पना की अपूर्व सिद्धि से भी अनुगृहीत हैं। इसलिए लोक जीवन के प्राकृतिक उपादानों के रंगों से परमार्थ के रहस्यों का मोहक चित्र तैयार करने में पूर्णत: सफल बने हैं। इस सहज अभिव्यक्ति को योग परिणाम का वरदान मान सकते हैं। योग और कवित्व के संयोग से एक अमर रचना का प्रणयन हुआ है !! यही 'मूकमाटी' है।
इस रचना का मूलत: लक्ष्य जीवन को अमरत्व का सन्देश देना है । अत: इसे मात्र एक रोचक महाकाव्य न मानकर एक अपूर्व एवं सांस्कृतिक तथा सोद्देश्य चेतन परिणति मानना ही संगत होगा । ग्रन्थ के 'मानस-तरंग' में रचनाकार द्वारा यह सूचना दी गई है कि इस कृति का सृजन ईश्वर सम्बन्धी कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु हुआ है : “कुछ दर्शन, जैन-दर्शन को नास्तिक मानते हैं और प्रचार करते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक होते हैं।" इस प्रकार के प्रस्तावों का खण्डन करके यह स्थापित करना जरूरी समझा गया है कि उपर्युक्त मान्यता अथवा प्रस्ताव जैन संस्कृति की सच्चाई को न जानकर किया जाता है। वास्तव में : "श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं। ...ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता है।" इस प्रकार यह समझाया गया है कि जैन दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक दर्शन है।
इस सिद्धान्त को समर्थन देने वाले कतिपय उपनिषद् सूक्तों को उद्धृत करके यह स्थापित करने की चेष्टा की है कि यथार्थ में ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकारना ही, उसे नकारना है और यही नास्तिकता है। 'तेजोबिन्दु उपनिषद्' की निम्न कारिकाएँ स्पष्टत: बताती हैं :
0 "रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्मा सृष्टस्तु कारणम् ।" (५/५१)
"संहारे रुद्र इत्येवं सर्व मिथ्येति निश्चिनु ।" (५/५२). सारे ब्रह्माण्ड को एक रस, चित् स्वरूप और चैतन्य रूप मानने वाला 'तेजोबिन्दु उपनिषद्' एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त है।
"अखण्डैकरसं सर्वं चिन्मात्रमिति भावयेत् चिन्मात्र एव चिन्मात्रमखण्डैकरसं परम् । भववर्जितचिन्मानं सर्वं चिन्मात्रमेव हि
इदं च सर्वं चिन्मात्रमयं चिन्मयमेव हि ॥" परम तत्त्व अखण्ड, एक रस युक्त और चैतन्य मात्र है । सब, संसार रहित सारा दृश्य और अदृश्य चिन्मात्र है। मात्र चिन्मात्र है । यह सारा चिन्मात्र है, मात्र चिन्मात्र ।
असंख्य कारिकाओं से इस तत्त्व का पुन: पुन: समर्थन किया है । 'मूकमाटी' का परम तत्त्व भी शुद्ध चेतना अथवा चिन्मात्र है । इसकी व्याख्या यह है : “जिसके प्रति-प्रसंग-पंक्ति से पुरुष को प्रेरणा मिलती है- सुसुप्त चैतन्यशक्ति को जाग्रत करने की; जिसने वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद