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मूकमाटी-मीमांसा :: 97
यहाँ एक भोग-राग और मद्य-पान में खोता है तो दूसरा योग-त्याग और आत्म-ध्यान में अपने को डुबो कर खोता है।
'मूकमाटी' में यदि किसी अलंकार की बहुलता है तो वह है रूपक । रूपक के दो भेद होते हैं-सांग और निरंग । पानी और मछली, आग और लकड़ी, कुआँ और रस्सी तथा मिट्टी और कुम्भकार के अनेकानेक रूपक हैंजिनमें कुछ सांग है और कुछ निरंग । उन सबके उद्धरण देने से इस अल्प कलेवर समीक्षा का आकार बहुत बढ़ जाएगा। रूपकों में सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जानकारी रचयिता की तलस्पर्शिता को दिखाने में पूर्ण समर्थ है। किन्तु विनम्रता-पूर्वक लिखना चाहूँगा कि अधिकांश रूपक बोझिल और रूखे हैं, उनमें वह भाव प्रवणता नहीं है जो एक काव्य के लिए आवश्यक है। पृष्ठ २७० पर अवा के पूरे विवेचन में लकड़ियों का रूपक रूक्ष ही रूक्ष है।
हेतूत्प्रेक्षाओं के अभाव ने भी काव्य में रस को आघात पहुँचाया है। स्वयम्भू का 'पउम चरिउ' हेतृत्प्रेक्षाओं के ही कारण जीवन्त बना है । प्रात: आते-आते चन्द्र पीत वर्ण का हो ही जाता है। इस पर कवि कल्पना करता है कि रात भर सूर्य की पत्नी निशा से सहवास के कारण वह भयभीत है कि कहीं सूर्य उसे देख न ले । इसी कारण वह पीला पड़ गया है। 'मूकमाटी' के रचयिता ने भी चन्द्र के पीत वर्ण पर कल्पना की है :
"अबला बालायें सब/तरला तारायें अब/छाया की भाँति अपने पतिदेव/चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो/छुपी जा रहीं
कहीं 'सुदूर "दिगन्त में"/दिवाकर उन्हें/देख न ले, इस शंका से।" (पृ. २) प्रात: होने को है । ताराओं का अस्त होना प्राकृतिक है । कवि कल्पना करता है कि दिवाकर कहीं उन्हें देख न ले, इस कारण छिपी जा रही हैं। किन्तु यहाँ यह भय सार्थक नहीं है । ताराएँ तो चन्द्र की पलियाँ हैं, अत: दिनकर देख भी ले तो उन्हें भय क्यों हो अर्थात् हेतूत्प्रेक्षा निर्जीव-सी है।
कवि अभिधा, लक्षणा और व्यंजना में लक्षणा को अधिक प्रश्रय देते प्रतीत होते हैं। किन्तु लक्षणा के प्रयोगों में विशृंखलता है, ऐसा अनेक स्थलों पर प्रतिभासित होता है, जैसे :
"विषयों और कषायों का वमन नहीं होना ही
उनके प्रति मन में /अभिरुचि का होना है।" (पृ. २८०) यह एक लक्षणात्मक प्रयोग है। खाद्य पदार्थों के मुँह से कै होने को 'वमन' कहते हैं। अत: मुख्य अर्थ में बाधा उपस्थित हुई और अन्यार्थ का समाहार हुआ कि विषयों और कषायों को बिल्कुल निकाल फेंकना है। इसके दो उपाय हैं - एक तो उस तरफ ध्यान ही न जाए और दूसरा इतना प्रयोग कि घिसते-घिसते चुक जाएँ। वमन शब्द दूसरे उपाय की ओर इंगित करता है । क्या यह ठीक है ?
"रस का स्वाद उसी रसना को आता है जो जीने की इच्छा से ही नहीं,
मृत्यु की भीति से भी ऊपर उठी है।" (पृ. २८१) जीवन और मृत्यु के ऊपर उठकर जो रस प्राप्त होता है, वह ब्रह्मानन्द है, 'ब्रह्मानन्द सहोदर' नहीं है। काव्य की आत्मा रस होती है और वह रस 'ब्रह्मानन्द सहोदर' होता है । यहाँ पर भी लक्षणा है। रसना में रस का स्वाद भौतिक होता है, वह उद्देश्य यहाँ नहीं है। अत: मुख्यार्थ में बाधा हुई । अन्यार्थ का समाहार है कि रस का स्वाद अर्थात् ब्रह्मानन्द तब प्राप्त होता है, जब यह जीव जीवन और मृत्यु से ऊपर उठ जाता है। किन्तु रसना शब्द बाधक है, वह अध्यात्म की ओर नहीं साहित्य की तरफ इंगित करता है। किन्तु ब्रह्मानन्द सहोदर के बिना साहित्यिक रस कैसे ढूँढूँ?