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आधुनिक युग की मनुस्मृति और गीता : 'मूकमाटी'
डॉ. परमेश्वर दत्त शर्मा जैनाचार्य सन्त कवि श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा विरचित 'मूकमाटी' युगप्रवर्तक महाकाव्य है । यह महाकाव्य ही नहीं, अपितु धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा चेतना का अभिनव शास्त्र है। यह आधुनिक युग की मनुस्मृति
और गीता भी है । यदि 'रामायण', 'महाभारत', 'पउमचरिउ' तथा 'रामचरितमानस' के रचयिता वाल्मीकि, व्यास, स्वयम्भू और तुलसी सन्त कवि हैं तो 'मूकमाटी' के रचयिता आचार्य विद्यासागर भी वीतराग सन्त कवि हैं । सूफी सन्त महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी का महाकाव्य 'पदमावत' यदि आध्यात्मिक रूपक है, महाकवि जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' यदि मनोवैज्ञानिक रूपक है तो 'मूकमाटी' धार्मिक रूपक है । वस्तुत: यह हिन्दी काव्य जगत् का गौरव ग्रन्थ है। सांस्कृतिक कथानक
आचार्य श्री विद्यासागरजी की काव्य प्रतिभा का यह अद्भुत चमत्कार है कि माटी जैसी अकिंचन वस्तु को महाकाव्य की विषय-वस्तु बनाकर उसकी मुक्ति की कामना को वाणी दी है। कुम्भकार शिल्पी ने मिट्टी की धुव और भव्य सत्ता को पहचानकर, कूट-छानकर, वर्णसंकर कंकरों को हटाकर उसे निर्मल मृदुता का लाभ दिया। फिर जल देकर प्राण प्रतिष्ठा की, चाक पर चढ़ाकर कुम्भ का रूप दिया, संस्कारित कर अवे में तपाया और फिर मंगल घट का रूप दिया । मंगल घट ने सांसारिक परिवारी सेठ को महासन्त गुरु के सत्कार का सुअवसर दिया । सन्त के सत्संग से सेठ को विराग जागा और वह सब कुछ त्याग कर नीराग साधु की शरण में चला गया । वीतराग महासन्त ने कुम्भ, कुम्भकार, श्रेष्ठी, आतंकवाद और धरती को शाश्वत सुख के लाभ' की कामना की। यद्यपि मिट्टी की महिमा का गान इस महाकाव्य का प्रतिपाद्य है, तथापि उसकी मुक्ति यात्रा में अनेक प्रसंग जुड़ते गए हैं। माटी से मंगल घट का निर्माण तो साधना का क्षेत्र है, किन्तु मंगल घट के संपर्क से कर्मबद्ध आत्मा की मुक्ति का क्षेत्र सिद्धि क्षेत्र है। सिद्धि क्षेत्र की अनन्त समस्याएँ हैं। उन सबका विस्तृत आख्यान प्रासंगिक कथाओं में बिखरा पड़ा है किन्तु मूल कथा में साधक को जिन जिन अवस्थाओं से गुज़रना पड़ता है उनका उल्लेख कवि ने इस प्रकार किया है-धरती माँ कृतकार्य कुम्भ से कहती है कि 'बेटा! तुम्हारी उन्नति और प्रणति देखकर मैं प्रसन्न हूँ। तुमने मेरी आज्ञा का पालनकर शिल्पी कुम्भकार के संसर्ग में आकर विकासशील जीवन का प्रारम्भ किया-यह पहला चरण था । अहंकार त्याग कर कुम्भकार को श्रद्धापूर्वक समर्पण किया-यह दूसरा चरण था । अग्नि परीक्षा जैसी कठोर परीक्षाओं में सफल हुए-यह तीसरा चरण था । क्षणभंगुर जीवन को स्वाश्रित, ऊर्ध्वगामी और ऊर्ध्वमुखी बनाया-यह अन्तिम चरण था। इस प्रकार जन्मा से अजन्मा होना, जीवन का वर्गातीत अपवर्ग होना है-शाश्वत सुख पाना है' (पृ.४८२-४८३)।
इस कथानक के द्वारा कवि ने आत्मा के उत्कर्ष की, मुक्ति यात्रा की कथा का रूपक बाँधा है। इसमें धरती' को ध्रुवसत्ता 'मूकमाटी' को पवित्र आत्मा, 'कुम्भकार शिल्पी' को पथ-प्रदर्शक गुरु, ‘मंगल घट' को निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु, ‘अतिथि सन्त' को विराग चेतना, 'आतंकवाद' को सांसारिक माया, प्रलोभन, बाधक तत्त्व का और 'नीराग साधु' को अर्हन्त जिनदेव का प्रतीक माना गया है। मूल पात्रों के अतिरिक्त चेतन और अचेतन पदार्थों का मानवीकरण कर कवि ने उनके गुण-धर्ममय स्वरूप का निरूपण भी पात्र रूप में किया है । यथा-कंकर, कुदाली, गदहा, लेखनी, कुलाल-चक्र, आलोक, डण्डा, कील, डोरी, अनल, अनिल, जल, गगन, भूमि, तानपूरा, वाद्ययन्त्र, गजमुक्ता, राजा, स्वर्ण कलश, झारी, मच्छर, मत्कुण, विविध रत्न, हाथी, सिंह, नाग-नागिन, प्रलयवृष्टि, बाढ़, रस्सी, जलजन्तु, चक्रवात आदि मानवी भाषा में सम्भाषण करते और अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य करते हैं, किन्तु दया और