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58 :: मूकमाटी-मीमांसा
नयी उमंग, नये रंग/अंग-अंग में नयी तरंग, नयी ऊषा तो नयी ऊष्मा/नये उत्सव तो नयी भूषा नये लोचन-समालोचन/नया सिंचन, नया चिन्तन नयी शरण तो नयी वरण/नया भरण तो नयाऽऽभरण नये चरण-संचरण/नये करण-संस्करण नया राग, नयी पराग/नया जाग, नहीं भाग नये हाव तो नयी तृपा/नये भाव तो नयी कृपा
नयी खुशी तो नयी हँसी/नयी-नयी यह गरीयसी ।" (पृ. २६३) चिरसंचित साधना ना के बिन्दु ही मानव को महान् बनाते हैं। इसकी स्थिति भी कुम्भकार के घड़े की भाँति है :
"गुप्त-साधक की साधना-सी/अपक्व-कुम्भ की परिपक्व आस्था पर
आश्चर्य हुआ कुम्भकार को।” (पृ. २६६) कृति का चौथा अध्याय अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' है । इस खण्ड में कृतिकार ने माटी को घट रूप में रूपायित कर दिया है। अब उसे पकाने की आवश्यकता है। यही अन्तिम साधना है, जिसमें साधक अपनी चरमावस्था पर पहुँचता है, जिसे 'साधक की मधुमती भूमिका' की संज्ञा दी गई है। कुम्भ को अग्नि में तपाने से तात्पर्य उसके कच्चेपन को दूर करना, उसके दोषों से उसे मुक्त करना है। लेखक के शब्द हैं :
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है। स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने । दोष अजीव हैं, नैमित्तिक हैं,/बाहर से आगत हैं कथंचित्;
गुण जीवगत हैं/गुण का स्वागत है।” (पृ. २७७) इस शरीर को बिना तपाए इसमें खरापन नहीं आ सकता । सोना भी बिना तपे चमकता नहीं है । अग्नि परीक्षा तो माँ सीता को भी देनी पड़ी थी। अग्नि की कसौटी पर कसने में धूम्र उठेगा, पुन: निर्धूम-अग्नि का प्रकाश भास्वर होगा :
"धूम का उठना बन्द हुआ/निधूम-अग्नि का आलोक अवा के लोक में अवलोकित होने लगा।/तप्त-स्वर्ण की अरुणिम-आभा भी अवा की आन्तरिक आभा-छवि से/प्रभावित हुईआज के दिन इस समय/शत-प्रतिशत/अग्नि की उष्णता उद्घाटित हुई है।"
(पृ. २८०) घड़ा तो बनकर तैयार हो गया, अब चाहे इसे त्रिलोचन का घट बनाएँ चाहे अन्त्येष्टि का; चाहे इसमें सोम रस भरें या विष रस । इसे भुक्ति और मुक्ति दोनों की चाह नहीं है । यह घड़ा दुःख-सुख दोनों का पर्याय है। किन्तु जब तक तामस का निगरण नहीं करेगा, तब तक समता नहीं आ सकती । तामस स्वयं विलोम रूप से समता उत्पन्न करता है। अब यह कर्तव्य की सत्ता में पूरी तरह डूब गया है। अब घड़ा युगों-युगों की स्मृति है।