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66 :: मूकमाटी-मीमांसा
बाद मानवीकृत माटी की केन्द्रीय अर्थसृष्टि कुछ पृष्ठों तक चलकर गौण हो जाती है ।
यह खण्ड वस्तुत: एक स्वतन्त्र काव्य है, क्योंकि माटी की पूर्ववर्ती मधुरिम काव्य भूमिका के उत्तरोत्तर चित्रण की अपेक्षा, कवि की यहाँ उपदेशन मनोवृत्ति व्यापक रूप से उभर गई है। श्रमण - कवि की प्रवचनात्मक अभिव्यंजना• आँकड़ों, सूक्तियों, सूत्रों और वक्तव्यों के निरन्तर निरूपण में विकासवाद की परिणति का समर्थन मिलता है । वे अमर्यादित व्यवस्था में डूबे सम्पन्न - समृद्ध नगर सेठ को आत्मोन्माद संस्कृति और काव्य - वस्तु की मूलधारा मानवीकृत माटी के बीच एक अन्योक्ति सम्बन्ध को रेखांकित करके रह जाते हैं । प्रकृति और मान के सम्बन्धों के अन्वेषण और मूल्यांकन में कवि को भले ही सफलता मिली हो किन्तु महाकाव्य के इस खण्ड की कथावस्तु में कपोलकल्पित गल्पों और अन्तर कथाओं के शिथिल संयोजन से, कलात्मक उच्चाशय और काव्यात्मक संगठन की प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। काव्य की माटी अर्थात् मानव और प्रकृति के मूल में तात्त्विक पहचान के द्वैत का आग्रह निरन्तर चलता रहता है ।
नगर सेठ का यह उपस्थापित कथा प्रसंग, मूल कथा वस्तु से अपना सम्बन्ध बनाए रखता है। नगर सेठ के तर्क-छल जीवन की दहशत, गहरी व्यग्रता का भाव, पूरे परिवार की रुग्ण मन:स्थितियाँ, पूँजीवादी समाज की विकृतियों और विसंगतियों की परिणति तथा अन्तहीन एक कुस्वप्न के यथार्थ की अपरिहार्य अनुभूति के तमाम सन्दर्भों को प्रतिबिम्बनों, अपवर्त्तनों, विघटनों और विसंगतियों के अस्तित्वमूलक प्रश्नों के प्रति कवि सचेत है । किन्तु अन्योन्याश्रित गल्पों के एक वृत्त में उनकी कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा उपदेशात्मक या प्रवचनात्मक उपक्रम में प्रतिबद्ध हो गई है । कवि इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, विज्ञान, राजनीति, दर्शन एवं चिन्तन आदि आधुनिक ज्ञानविकास और पूँजीवाद, विकासवाद तथा आतंकवाद आदि वैचारिक आन्दोलनों के बीच, मूल्यों से विच्छिन्न मानव को रूढ़-जड़ वस्तुओं, बूज्र्ज्या घटकों और साम्प्रतिक द्वन्द्वों की पूर्वापरता की एकरैखिक यात्रा में विवश देखता है। वे काव्यवस्तु में प्रकृति और मानव के आत्मपरीक्षण और वर्तमानकालिक द्वैत- द्वन्द्वात्मक विघटन की कल्पना को संवाद की कठिन और गहरी प्रक्रिया में बाँधते तो हैं किन्तु अपनी आस्था और भावसम्पदा के द्वारा अपने चतुर्थ बृहत् खण्ड की संरचना को महाकाव्यत्व की गरिमा से सत्यापित करने में असमर्थ हो जाते हैं ।
शिल्पी के द्वारा शोधित, निर्मित, अग्नि परीक्षण में उत्तीर्ण मंगल घट अपने शुद्ध सात्त्विक रूप में मानवेतर अर्थ और ध्वनियों के समाधान प्रस्तुत कर, गुरु (शिल्पी) और माँ (माटी) की उत्प्रेरणा और उपदेशना को सार्थक कर देता है। माटी स्वयं ऊर्ध्वमुखी होकर, सर्ग से निसर्ग तथा वर्ग से अपवर्ग की यात्रा युग-युग से करती आ रही है। यही माटी का काव्य है ।
पृष्ठ पूछ
यूँबीच में ही कंकरों की ओर से...
और खरा बने कंचन-सा !"