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मृत्तिकोपनिषद् है 'मूकमाटी'
आनन्द बल्लभ शर्मा 'सरोज'
'मूकमाटी' महाकाव्य एक ऐसे तपः पूत साधक की उत्कृष्ट उद्भावना और शुचि-शुद्ध-सर्जना है, जिसने दर्शन तथा अध्यात्म की जटिलतम ग्रन्थियों को अत्यन्त सहज-सरल रूप में अध्येताओं के सम्मुख एक-एक कर खोल के रख दिया है। क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर - इन पंच महाभूतों के अनुपम विश्लेषण से विहित इस गुरु- गम्भीर ग्रन्थ में प्रथम गणनीय, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण 'क्षिति-तत्त्व' को प्रधानता प्रदान कर, उसी की आधारभित्ति पर परमार्थ
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पुण्य प्रासाद निर्मित किया गया है। 'माता पृथ्वी, पुत्रोऽहं पृथिव्या: ' की पवित्र परिकल्पना के अनुसार धरती को हम माँ की मान्यता प्रदान करते रहे हैं । कवि की कला कुशल लेखनी ने 'माटी' को इस माँ की पद- दलित पुत्री के रूप में अवतरित कर कथा सूत्र को अविकल विस्तार दिया है। इससे पहले हमें 'श्रीमद् भागवत महापुराण' में भी माटी के महिमामण्डित स्वरूप का मनमोहक कथानक प्राप्त होता है, जहाँ भागवतकार ने युगावतार बाल कृष्ण के श्रीमुख में माटी का सन्निवेश कराकर उसी के मिस माता यशोदा को अखिल ब्रह्माण्ड के वैराट्य और जगत् नियन्ता श्यामसुन्दर के सहज-समर्थ स्वरूप का बोध कराया है। दर्शन और अध्यात्म के समन्वय का अद्भुत कथानक है वह । किन्तु उससे भी विचित्र और चमत्कारिक दृष्टि है जैन दर्शनाचार्य, 'मूकमाटी' के प्रणयनकर्त्ता, तेजस्वी सन्त श्रीयुत विद्यासागरजी महाराज की । मीमांसा के क्षणों में भारत का प्रत्येक दर्शन घट-पट के ताने-बाने में सिद्धि के सूत्रों को बुनता - जोड़ता रहा है । 'मूकमाटी' में भी जहाँ माटी है, वहीं कुम्भ भी है, कुम्भकार भी । किन्तु सब कुछ एक नए वेश, नए परिवेश में, जीव जगत् की विशद व्याख्या को समेटे हुए, नई-नई प्रस्थापनाओं के साथ । अतः मेरा तो यही अभिमत है कि 'मूकमाटी' केवल एक श्रेष्ठतम साहित्यिक कृति ही नहीं अपितु उपनिषदों की श्रृंखला में यह एक और नया उपनिषद् है— ‘मृत्तिकोपनिषद्' ।
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विद्वान् काव्यकार ने एक स्थान पर दर्शन और अध्यात्म की तुलना करते हुए अध्यात्म को दर्शन से कहीं अधिक श्रेष्ठ निरूपित किया है (पृ. २८८-२८९) । इस दृष्टि से प्रश्न उठता है कि क्या 'मूकमाटी' को केवल विशुद्ध आध्यात्मिक महाकाव्य ही माना जाए ? ऐसा तो तभी माना जा सकता था जब ग्रन्थ के सर्वांगीण चिन्तन, मनन, अध्ययन और आलोड़न - विलोड़न के बीच दर्शन बार-बार उमड़-उभर कर सामने न आता रहता हो । किन्तु यहाँ तो तत्त्व विवेचन के क्रम में काया - माया, रज्जु-कूप, ध्यान-धारणा, समाधि - प्राणायाम जैसे दार्शनिक उपादान (पृ. ५९,२७९,२८६) इन से सम्पृक्त (भू, भुवः स्वः, मह, जनः, तप की ) ऊर्ध्वगामी अवधारणा, कहीं अणु और मनु तथा कहीं ज्ञानविज्ञान का वैदुष्यमय विवेचन (पृ. २४९); रूप, रस, स्पर्श और गन्ध जैसे पंच गुणों की ऐन्द्रिक व्याख्या (पृ. ३२८,३३०); बीजाक्षरों की परिकल्पना (पृ. ३९७); अग्नि परीक्षा प्रकरण (पृ. ३७४); आस्था, स्वप्न तथा 'उत्पाद - व्यय- -धौव्यसूत्र' तथा पारिशेष्य न्याय आदि की चर्चा - सभी कुछ तो विद्यमान है । सर्वोपरि सन्त शिरोमणि रचनाकार की यह मान्यता कि- कार्य-कारण हेतु से ईश्वर सृष्टिकर्त्ता की कोटि में नहीं आता इसे दार्शनिक परम्परा की कृति सिद्ध करने हेतु पर्याप्त है । पुनश्च ग्रन्थ में 'मानस - तरंग' के विद्वान् लेखक का यह कथन भी द्रष्टव्य है : "ब्रह्मा को सृष्टिकर्त्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है (उद्धरण - 'तेजोबिन्दूपनिषद्' से) । ... ऐसे दर्शन का ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है।" चूँकि सिद्धान्त निरूपण मूलतः विषय है अत: 'प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्' के अनुसार यह कृति दर्शन प्रधान है, इसमें संशय नहीं । अस्तु, उपर्युक्त मान्यता या प्रस्थापना के प्रति जिज्ञासुजनों और सुधी अध्येताओं के सहमति अथवा असहमति के अधिकारों को सुरक्षित रखते हुए भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि 'मूकमाटी' नव-नवोन्मेषिणी तात्त्विक विवेचना से परिपूर्ण एक ऐसी विशिष्ट कृति है जो दार्शनिक अभिव्यंजना के क्षेत्र में एक कीर्तिमान् स्थापित करती हुई उपनिषदों की कोटि में आसीन होने की
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