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आत्मचेतना का सम्यक् साहित्यिक प्रवाह : 'मूकमाटी'
आचार्य डॉ. हरिशंकर दुबे दिगम्बराचार्यों की श्रमण परम्परा के उन्नायक आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की अमर कृति 'मूकमाटी' गहरे आध्यात्मिक अर्थों को समेटे दार्शनिक पृष्ठभूमि पर विरचित एक सरस महाकाव्यात्मकता युक्त साहित्यिक कृति है, जो लोकरंजन के साथ लोकमंजन और भवभंजन की सम्पदा से युक्त है । यह काव्य न तो किसी कवि के ऐकान्तिक प्रेम का आलाप है, न उसकी विफलता का विलाप, न गहरी प्रेम-पीड़ा का प्रलाप है और न आत्म-विमुग्धा दशा का स्वान्तःसुखाय एकालाप, अपितु यह जीव और ब्रह्म के मध्य विस्तारित मायामय जगत् में फँसे-धंसे उस अंश का अपने अंशी से संलाप है जिस अंश को संसार की सत्यता-नित्यता-बद्धता आदि की सच्चाइयों का बोध है और यही बोध उसके इस संवाद की शक्ति है और सीमा भी । यही कारण है कि रचनाकार न तो कथाकार है, न व्यथाकार, अपितु वह यथाकार बनने का अभिलाषी है :
"मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं।/और
मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं।” (पृ. २४५) कृति की भावभूमि
कवि की यह रचना केवल कृति नहीं है, वरन् जीवन विकृति के विरुद्ध संस्कृति का सिंहनाद है । कवि का यथाकार बनने का भाव उसे सोऽहं की भारतीय संस्कृति की उस भावभूमि पर प्रतिष्ठित करता है, जो अद्वैत की चरम परिणति है । तथाकार बनने की कवि की अभिलाषा नई नहीं है, वह अन्यत्र अपनी एक कविता में कहता है :
"तन मन को तप से तपा, स्वर्ण बनूँ छविमान ।
भक्त बनूं, भगवान को भनूँ, बनूँ भगवान ॥" चाहे चेतना के गहराव में" नामक कविता संग्रह हो या 'नर्मदा का नरम कंकर' या फिर काव्य संग्रह 'तोता क्यों रोता' कृति हो या 'डूबो मत, लगाओ डुबकी' - सबमें आत्म-परिष्कार की यही गहरी टीस समाई है । चेतना के गहराव का कवि काल के प्रवाह में बहते जाते जीव और नष्ट होते जीवन के प्रति जागरूक है :
"यह एक/नदी का प्रवाह रहा है/काल का प्रवाह/बह रहा है और बहता! बहता!! कह रहा!!!/जीव या अजीव का/यह जीवन पल-पल इसी प्रवाह में/बह रहा, बहता जा रहा है।"
(चेतना के गहराव में", काव्य संग्रहगत 'हँसीली सत्ता' कविता, पृ. ८२) जीवन की इस दारुण दशा के कारणों का भान कवि को है । वह 'निजानुभव शतक' में कहता है :
"दारा नहीं शरण है, मनमोहिनी है, देती अतीव दुख है, भववर्धिनी है । संसार कानन जहाँ वह सर्पिणी है; मायाविनी अशुचि है, कलिकारिणी है।" (६२)