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मूकमाटी-मीमांसा :: 65
दया-धर्म की/प्रभावना हो..!" (पृ. ७७-७८) बालटी के साथ मछली बाहर आती है और माँ माटी के चरणों में गिर जाती है। वह माँ से ज्ञान माँगती है। माटी कुम्भकार से प्रार्थना करती है कि मछली को कूप जल में पहुँचा दें, क्योंकि “दया धर्म का मूल है"।
द्वितीय खण्ड में कोमल माटी में अनुकूल जल मिश्रित करना, रौंदना और फिर कुलाल चक्र में रखकर आकार देना, कच्चे घट पर अनेक अंकों को, चित्रों को अंकित करना और सूखने के लिए छोड़ देने के अनेक विशद चित्रात्मक प्रसंग हैं। काव्य के दृश्यात्मक फलक पर घट और कुम्भकार की सन्निधि उस द्वैत के कारण, भिन्नता के यथार्थ से केवल समाहार ही नहीं करती वरन् साधक श्रमण के द्वैध सन्तुलन को संवेदन और संज्ञापन पर केन्द्रित करती है। 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कवि उस दूरी को साधता है, जहाँ सत्य और अध्यात्म साथ-साथ चलते हैं। अपनी प्रवचनात्मक वाचालता में सर्वातिशय गम्भीर चिन्तन का सहज सम्प्रेषण करना, भावों की अनिवार्य परिणति के लिए भाषा की वरीयता दर्शाना, निश्चिततावादी अवधारणा के अन्तरंग स्पन्दन को रेखांकित करना ही इस खण्ड के प्रमुख प्रतिपाद्य हैं।
"चक्र अनेक-विध हुआ करते हैं/संसार का चक्र वह है जो राग-रोष आदि वैभाविक/अध्यवसान का कारण है;/चक्री का चक्र वह है जो भौतिक-जीवन के/अवसान का कारण है,/परन्तु/कुलाल चक्र यह, वह सान है
जिस पर जीवन चढ़कर/अनुपम पहलुओं से निखर आता है।" (पृ.१६१-१६२) गुरु कुम्भकार अपने नैमित्तिक कर्म के सदृश अपने स्रष्टा हाथों से माटी को सत्य बोध से परिचित कराता
तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' में कवि की चिन्ता और आस्था तथा विश्वास और पहचान की भूमिका स्पष्ट हुई है । सूर्य, चन्द्र, धरती, सागर, माटी एवं नारी आदि की वस्तुस्थिति तथा आस्तिकता तथा उनके राग-द्वेषात्मक अन्त:सम्बन्धों को कवि ने परिपक्व और विचारोत्तेजक तीव्रता के साथ प्रस्तत कर दि दिया है। जागतिक प्रपंच की कारयित्री शक्तियों की लघिमा और गरिमा, अन्योन्याश्रित सत्ताओं का संकुचन एवं प्रस्तार और देश-काल की मायिक संसृष्टि की वैश्विक व्यवस्था के निरूपण में कवि की प्राणवत्ता रसमयी हो गई है। साधक कुम्भ की लोकायत प्रवाही यात्रा अडिग, अविकल्प, मौन और समभाव तो होती है पर प्रतिकूलताओं को भी अपनी लक्ष्य पूर्ति का साधन मानती है:
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए/अन्यथा,/वह यात्रा नाम की है
यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७) । चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में बहु घटनाचक्रों और अन्यान्य अन्त:कथाओं के कारण काव्यवस्तु का पूर्ववर्ती खण्डों के परिप्रेक्ष्य में अव्यवस्थित संयोजन हुआ है । अवा में कच्चे घट को पकाने के उपक्रम में शिल्पी के नवकार मन्त्र का जाप, बबूल की लकड़ियों का शिल्पी से प्रतिवाद, कुम्भ अग्नि का संवाद, कुम्भ के अग्निपरीक्षण के लिए स्वीकृति, प्रमुदित अग्नि का प्रज्वलन, कुम्भ की आत्मशुद्धि और आत्मसाक्षात्कार की अभिव्यंजना के