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74 :: मूकमाटी-मीमांसा
"प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है/और सिन्दूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा-/भाई है, भाई... लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपने पराग को-/सराग मुद्रा को
पाँखुरियों की ओट देती है।” (पृ. १-२) इसमें बसन्त आदि ऋतुओं के चित्रण तो हैं किन्तु अन्य कवियों की तरह बसन्त यहाँ काम का सन्देश वाहक बनकर नहीं आता।
प्रतीक चयन की दृष्टि से 'मूकमाटी' का सौन्दर्य अनुपम है । कवि ने भले ही परम्परागत प्रतीकों का चयन किया हो किन्तु उन्हें नई अर्थवत्ता प्रदान की है। रस्सी को रस-सी कहकर या बाल्टी, मछली, घट, गदहा आदि को नए अर्थ प्रदान कर कवि ने इन प्रतीकों को आध्यात्मिक अर्थों में ढाला है और सामाजिकता से भर दिया है। संवेदना के धरातल पर यह प्रतीक अपना सविशेष अर्थ रखते हैं। कवि का बिम्ब विधान अनूठा है तो रूपकों की दृष्टि से समूचा कारण ही एक रूपक बनाकर प्रस्तुत किया गया है । माटी की कथा रूपक कवि के काव्य कौशल का अद्भुत चमत्कार बनकर हमारे सम्मुख आता है। इस प्रकार कवि अपने भाषाई सामर्थ्य से 'मकमाटी' के शब्द विन्यास को नई अर्थवत्ता प्रदान करता है । यह उसकी प्रातिभ मेधा का ही चमत्कार है कि शृंगारहीन होने, कवि की ऐकान्तिक प्रेम अनुभूतियों की शून्यता होने तथा दर्शन की कंकरीली-पथरीली कठोर चट्टानों की उपस्थिति के बाद भी कवि सरस काव्य सरिता का कल्लोल प्रवाहित कर पाता है। उपदेशात्मक बोझिलता के बाद भी काव्य में शुष्कता या नीरसता नहीं आती, कथा प्रवाह बना रहता है और इस प्रवाह के प्रति औत्सुक्य का पाठकीय भाव भी। सम-सामयिक जीवन दृष्टि
_ 'मूकमाटी' का रचनाकार अपने तमाम सैद्धान्तिक आग्रहों के बाद अपनी दृढ़ दार्शनिक मान्यताओं के प्रति अटूट आस्थाओं के साथ अपने युग और उसकी समस्याओं के प्रति जागरूक है, संवेदनशील है। उसकी रचना के मूल में है - सम्यक् दृष्टि, जिसके फलस्वरूप काव्य के अनेक आयाम हैं। जिसके एक छोर पर दर्शन है तो एक छोर पर अध्यात्म, एक छोर पर यथार्थ है तो एक छोर आदर्श का है, एक छोर पर कलात्मक सच्चाइयाँ हैं तो एक पर अभिव्यंजना । कवि सम्यक् ज्ञानी है, अत: अपने युग चरित्र को कैसे विस्मृत कर सकता है ? धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष वाली पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा में अर्थ और काम की सर्वोपरिता कवि से छिपी नहीं है । साधु होकर भी उसे इसी संसार में विचरण करना पड़ता है, अत: माटी के पुतलों के अन्दर चलने वाले क्रिया-व्यापारों और (मूक होने पर भी) उनकी आकांक्षाओं को वह खूब पहचानता है । कामातुरों को फटकारते हुए जहाँ कवि "कम-बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं" (पृ. ९२) कहता है तो वहीं तथाकथित समाजवादी प्रेमियों की खबर लेते हुए भी कहता है :
"प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है।
समाजवाद-समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे।” (पृ. ४६१) समाज में बढ़ते अपराधों और उसके कारणों की पहचान भी कवि को है। इसी कारण कवि समाज के लोगों को सचेत करते हुए कहता है :
“अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो