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मूकमाटी-मीमांसा :: 75
अंधाधुन्ध संकलित का / समुचित वितरण करो / अन्यथा, धनहीनों में / चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं ।" (पृ. ४६७ - ४६८)
कभी रामचन्द्र शुक्ल ने इन मोटी तोंदवाले धन कुबेरों की खबर लेते हुए लिखा था : “अरे मोटे आदमियो ! तुम थोड़ा-सा दुबले हो जाते - अपने अंदेशों से ही सही तो जाने कितनी सूखी ठठरियों पर मांस चढ़ जाता।" इसी तर्ज पर आचार्य विद्यासागरजी धनिकों की तथाकथित उदारता का उपहास करते हुए लिखते हैं :
"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है, / उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं, / काकतालीय- न्याय से
कुछ मिल भी जाय / वह मिलन लवण - मिश्रित होता है पल में प्यास दुगनी हो उठती है।” (पृ. ३८५)
विश्व में बढ़ते आतंकवाद और उससे कराहती पीड़ित - जूझती मानवता को लक्ष्य कर कवि कहता है :
"जब तक जीवित है आतंकवाद / शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती यह / ये आँखें अब / आतंकवाद को देख नहीं सकतीं, / ये कान अब आतंक का नाम सुन नहीं सकते, / यह जीवन भी कृत-संकल्पित है कि उसका रहे या इसका/यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा ।" (पृ. ४४१)
आतंकवाद को कवि जड़ से मिटा देना चाहता है किन्तु आतंकवाद क्यों पैदा होता है, इसका संकेत भी वह करता है। माटी के कलश की महत्ता स्वर्ण कलश को सह्य नहीं, अतः स्वर्ण कलश आतंक की सृष्टि करता है । इस उदाहरण द्वारा मानों कवि माटी से पावन भारत और धनकुबेर अमेरिका आदि राष्ट्रों की बिना कहे तुलना कर देता है। काँटे का क्रोध और बदले की कामना, रस्सी को रस-सी बनने का उपदेश एवं शुष्कता से बचने का सन्देश, और मछली, बाल्टी, कुआँ, कंकर आदि के उदाहरणों द्वारा कवि आज के मानव के अन्दर पनपने वाली क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि विकारकारी वृत्तियों पर निशाना साधता है । इस प्रकार कवि अपने सामाजिक परिवेश के प्रति . उदासीन नहीं होता, उसे सामाजिक जागृति के अपने दायित्व का बोध है । कवि नारी के कमनीय रूप को संसार के लिए बन्धन मानकर जहाँ अपनी कविता में दारा को सर्पिणी आदि तक कह देता है, वहाँ नारी के गरिमामय उदात्त रूप का प्रशंसक भी है। वह नारी के विविध नामों की अद्भुत व्याख्या करता है, यथा - कुमारी = " 'कु' यानी पृथिवी / 'मा' यानी लक्ष्मी / और / 'री' यानी देनी वाली / इससे यह भाव निकलता है कि / यह धरा सम्पदा सम्पन्ना / तब तक रहेगी/जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी।” (पृ. २०४); स्त्री = ""स्' यानी सम - शील, संयम / 'त्री' यानी तीन अर्थ हैं, धर्म, अर्थ काम- पुरुषार्थों में / पुरुष को कुशल - संयत बनाती है / सो स्त्री कहलाती है ।" (पृ. २०५); दुहिता = " दो हित जिसमें निहित हों / वह 'दुहिता' कहलाती है / अपना हित स्वयं ही कर लेती है/ पतित से पतित पति का जीवन भी/हित सहित होता है, जिससे / वह दुहिता कहलाती है।" (पृ. २०५) । इसी तरह अबला और सुता आदि के अर्थ भी किए गए हैं। परम्परागत प्रचलित अर्थों से भिन्न ये अर्थ कवि के उन भावों के परिचायक हैं जो नारी के प्रति समाज की परिवर्तित सोच के प्रमाण हैं । कवि नारी को मुक्ति के मार्ग में बाधा, ताड़न का अधिकारी या अशोच्या नहीं मानता, उसमें महत् तत्त्व की तलाश करता है । अस्तु ।
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समीक्षा की प्रणाली के अनुरूप काव्य में निहित दोषों को भी तलाशा जा सकता है । लम्बे-लम्बे उबाऊ