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68 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसी तरह 'दोहा- दोहन' में भी ऐसी ही अनुभूतियाँ व्यक्त हुई हैं। हमारे कहने का अभिप्राय मात्र इतना है कि इन कृतियों में से व्यतीत होकर ही कवि की उस मनोभूमि को समझा और विवेचित किया जा सकता है, जिसमें 'मूकमाटी' की रचना का अभिमानस निर्मित हुआ है।
माटी की मुखरता में निहित भास्वरता
कवि भले ही अपनी रचना को 'मूकमाटी' की संज्ञा दे किन्तु अनकहे वह माटी इतना कुछ कहती है कि एक महाकाव्य का काय- कलेवर भी छोटा पड़ जाता है । माटों की मौन साधना में अन्तर्निहित वे तत्त्व ही उसे वाणी प्रदान करते हैं, जिन्हें संयम, सेवा, साधना, सत्कार, सहकार, संस्कार, शालीनता और समर्पण जैसे नामाभिधान दिए जा सकते हैं। मनुज माटी का पुतला है, अतः माटी के प्रति उसका आकर्षण सहज है, सप्रयास नहीं। माटी का स्वर मनुज और उसकी मनुष्यता का स्वर है और मनुष्य के स्वरों में माटी की मूक पीड़ा भी समाहित है। यही कारण है कि तुलसी जब 'पंच रचित यह अधम शरीरा' कहते हैं तो माटी को प्रथम पूज्य स्थान देते हैं और कबीर "माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय । इक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूंगी तोय” - कहकर माटी की नित्यता के सम्मुख कुम्भकार की नश्वरता का उद्घोष कर देते हैं। 'अष्टाचक्रा नवाद्वारा देवानां पुरयोद्धया' कहने वाले वेद भी इस माटी के शरीर में ही देवताओं की उपस्थिति का आधार ढूँढ़ते हैं। तब से लगातार कविगण इस माटी में आत्मसात् उस सत्य के सन्धान में साधनारत हैं, जो जीव को जगत् में प्रवृत्त करता है। यह माटी भले ही मूक हो किन्तु ( हिन्दू दर्शन के अनुसार) सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के सृजन की प्रथम आधारभूत शक्ति यही माटी बनी। इसी से मानव बना, उसका जीवन चला और उसने अपने जीवन के लिए सरंजाम सँजोए । इसी माटी के लिए जाने कितने सत्ता संघर्ष हुए और सत्ताधीशों की राज- सत्ताएँ माटी में मिल गईं । सत्यवती सीता इसी माटी की गोद में पाई गईं, खेलीं और अपने सतीत्व प्रमाण के लिए इसी माटी की गोद में चिर विश्रान्ति पा सकीं। इसी माटी का उद्धार करने के लिए विष्णु को वराह का अवतार धारण करना पड़ा और इसी माटी को तीन पग में नापने के लिए उन्हें वामन रूप लेना पड़ा। जब से मनुष्य ने बुद्धि-विवेक पाया तो इस माटी को चन्दन समझ माथे पर लगाया । इस देश का हर ग्राम तपोभूमि बना और बच्चा-बच्चा राम बन गया। इसी माटी की आन- शान-बान के लिए वीरयोद्धा समरांगण में प्राणों की बाजी लगा देते हैं तो इसी माटी पर न्यौछावर होने कवि माखनलाल चतुर्वेदी कह उठते हैं :
"मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक । मातृभूमि हित शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक ॥"
यह पुष्प की ही अभिलाषा नहीं, उस युग का सत्य बन गया जो युग अपनी धरती के प्रति कृतज्ञता भाव से नमित था । भगवान् भले जगत् को बनाते हों किन्तु उन्हें बनाने वाले भक्त के लिए यही मिट्टी सहारा बनी। इसी माटी के बल पर भक्त ने न जाने कितनी देव प्रतिमाएँ गढ़ीं। डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने इसी माटी के विश्वास की अमरता के लिए लिखा :
"सौ बार बने सौ बार मिटे, लेकिन मिट्टी अविनश्वर है । मिट्टी गल जाती पर उसका, विश्वास अमर हो जाता है । "
इसी माटी ने अपनी गोद में अनेक युगों को ढुलराया है, शताब्दियों को सुलाया है :
" विरचे शिव विष्णु विरंचि विपुल / अगणित ब्रह्माण्ड हिलाए हैं । पलने में प्रत्यय सुलाया है, / गोदी में कल्प खिलाए हैं । "