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70 :: मूकमाटी-मीमांसा
'मूकमाटी' का महाकाव्यत्व
प्रस्तुत संग्रह के आरम्भ में लिखित 'प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन इस कृति के सम्बन्ध में लिखते हैं : "... (इसे) महाकाव्य की परम्परागत परिभाषा के चौखटे में जड़ना सम्भव नहीं है, किन्तु यदि विचार करें कि चार खण्डों में विभाजित यह काव्य लगभग ५०० पृष्ठों में समाहित है, तो परिमाण की दृष्टि से यह महाकाव्य की सीमाओं को छूता है।” यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या केवल परिमाण की दृष्टि से ही यह महाकाव्य है ? परिणाम की दृष्टि से क्या है ? केवल कलेवर की विशालता ही कृति को महाकाव्यत्व दे सकती तो सारे शब्द - कोष महाकाव्य कहलाते । ‘साहित्य-दर्पण’कार ने ‘“सर्गबन्धो महाकाव्यम्” लिखकर महाकाव्य के सारे लक्षणों की चर्चा की है। सर्ग की दृष्टि से ही यदि विचार करें तो पुराने महाकाव्यों में कम-से-कम आठ सर्ग अनिवार्य माने गए हैं। प्रस्तुत काव्य कृति में तो चार ही सर्ग हैं | हिन्दी महाकाव्यों का प्रमाण माने जाने वाले 'श्री रामचरित मानस' में 'सप्त प्रबंध सुभग सोपाना". द्वारा सात सर्गों की ही अवतारणा की गई है, तो संस्कृत में वाल्मीकि ने 'रामायणम्' में सात काण्डों की ही रचना की है। यदि यह महाकाव्य है, तो सर्ग की दृष्टि से 'मूकमाटी' क्यों नहीं ? कहा जा सकता है कि वाल्मीकि ‘रामायणम्' में एकएक काण्ड में अनेक सर्ग-उपसर्ग समाहित हैं । महाकाव्य के लिए एक ही छन्द अनिवार्य होता है । तुलसी के दोहाचौपाई को लिया किन्तु बीच-बीच में सोरठा आदि का भी सहारा लिया गया है। 'मूकमाटी' के रचनाकार को छन्दों के बन्धन स्वीकार्य नहीं, वह मुक्त छन्द का प्रयोग करता है । वस्तुत: छन्द बन्ध का मूल भाव कथा का प्रवाह है । 'मूकमाटी' का कवि कथा प्रवाह और उसके विस्तार के प्रति जागरूक है। यह बात भी विचारणीय है कि महाकाव्य का विषय क्या हो ? शास्त्रीय परम्परा में महाकाव्य और खण्डकाव्य के विषयों का पृथक्-पृथक् विचार है। महाकाव्य के वे ही विषय चुने जा सकते हैं, जिनमें वृहद् कथा-तत्त्व हों। 'माटी' को महाकाव्य का विषय कैसे बनाया जा सकता है ? इस दृष्टि से विचार करें तो हमारे सम्मुख श्रीहर्ष का 'नैषधचरित' सामने आता है, जिसमें नल-दमयन्ती के परिणय मात्र की कथा को आधार बनाया गया है, इसी तरह 'प्रिय प्रवास' और 'वैदेही वनवास' में छोटी-छोटी कथाओं को महाकाव्य का विषय बनाया गया है । महाकाव्य के लिए कथा की ऐतिहासिकता या पौराणिकता अनिवार्य होती है। 'मूकमाटी' की कथा इस दृष्टि से खरी नहीं उतरती किन्तु 'कादम्बरी' की कथा जिस तरह कल्पित कथा है, उसी तरह 'मूकमाटी' भी कवि की कल्पना की उद्भावना है। वस्तुत: महाकाव्य में कथा वैचित्र्य अपेक्षित नहीं होता । कथा अभीष्ट होता है। 'मूकमाटी' का रचनाकार कथा रस के प्रति जागरूक है, यही कारण है कि वह महाकवि केशव की 'रामचन्द्रिका' की तरह छोटे-छोटे वर्णनों पर ध्यान देता है । माटी का उत्खनन, काँटे का संवाद, माटी की छनाई - बिनाई - कुटाई में कंकड़ों की पीड़ा, पानी लाने के लिए कुआँ, बाल्टी, रस्सी की गाँठ, उस गाँठ को खोलने के लिए दाँतों का उपक्रम, लालारस (लार) में गाँठ का ढीला पड़कर खुलना आदि जाने कितने छोटे-छोटे वर्णनों के प्रति कवि सावधान है । महाकाव्य के आरम्भ में मंगलाचरण की परम्परा है, जो 'मूकमाटी' में अनुपलब्ध है । शास्त्रीय परम्परा में तीन प्रकार के मंगलाचरण माने गए हैं - नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक और वस्तु निर्देशात्मक । यहाँ तीनों का ही अभाव है । इस परम्परा को तोड़ने की भी परम्परा रही है। 'प्रिय प्रवास' से लेकर 'कामायनी' तक जाने कितने हिन्दी महाकाव्यों में मंगलाचरण की इस परम्परा का भंजन किया गया है जिसे विद्यासागरजी ने भी अपनाया है। दूसरी बात यह कि कवि ‘मूकमाटी' के आरम्भ में "सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, / और 'इधर ''नीचे/निरी नीरवता छाई ।” (पृ. १) लिखता है, तो जिस सीमातीत महाशून्य का उल्लेख करता है, वह मानों उसी विराट् की अभ्यर्थना का मंगलाचरण बन जाता है । रस की दृष्टि से विचार करें तो 'मूकमाटी' का प्रधान रस शान्त है, जो नाटकों की दृष्टि से वर्जित माना जाता है। श्रृंगार या वीर ही प्रधान रस होना चाहिए।
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