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काव्य की माटी और माटी का काव्य : 'मूकमाटी'
प्रो. (डॉ.) चक्रवर्ती
'मूकमाटी' वस्तुत: काव्य की माटी और माटी का काव्य है जिसमें हमारी धरती को उसकी सार्वभौमिकता में इस तरह स्वायत्त किया गया है कि वह मूर्त यथार्थ की प्रतिबिम्ब ही नहीं, बल्कि अपनी समग्रता में अमूर्त यथार्थ की प्रतिबिम्ब भी बन गई है। इसमें कवि ने अपने रचनात्मक धैर्य और भाषा की दीर्घकालिक सारस्वत योजना से उपदिष्ट मानव के ऊर्ध्वमुखी विकास के अद्यतन अन्तर्बाह्य संघर्षों और सार्थक - निरर्थक, सुन्दर - असुन्दर उपलब्धियों को जो अनुभूत किया, उसी को सम्बोध्य भारतीय मानस के लिए मुक्त छन्द रहस्यसिक्त ढंग से सम्प्रेषित कर दिया । ‘मूकमाटी' के व्यापक फलक पर, प्रति वस्तु का मानवीकरण और निरन्तर सूक्ष्म दृष्टि से रूपक, प्रतीक, बिम्ब विधान के संयोजन में कवि की चेतना संवेदनशील हो उठी है। माटी, यहाँ मानव जीवन की गतिविधि के प्रतीक-सी, एक प्रमुख भूमिका निभाती है और अपनी 'माँ' - धरा से निरन्तर उपदिष्ट (देशना) होकर चलती रहती है। धरा, प्रकृति की सम्पूर्णता के अनुभव से न अलग है और न अपरिचित । कवि ने इन्हें साधन और साध्य के रूप में परस्पर रूपान्तरित किया हैं। दोनों को, विभिन्न सन्दर्भों में भेदपरक पहचान दी है। उनकी तात्त्विक पहचान में काव्यार्थ की छवि विश्वसनीय बन गई है :
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"फिर, / कुछ क्षणों के लिए / मौन छा जाता है- / दोनों अनिमेष
एक दूसरे को ताकती हैं/धरा की दृष्टि माटी में / माटी की दृष्टि धरा में बहुत दूर" भीतर / जाजा - समाती है।" (पृ. ५-६)
माटी और धरती का सार्वभौमिक चित्र एक केन्द्रीय रूपक भाँति यहाँ उभरता है जिसमें अतिव्याप्त विच्छिन्नता, प्रथम दृष्टि में ही, एक विशिष्ट प्रभाव की सृष्टि करती है। इस महाकाव्य के काव्य सत्य की पहचान के लिए जैन दर्शन के अनेकान्त दर्शन को जीवनगत पहचान में विन्यस्त देखना समीचीन होगा । समानाशयी स्याद्वाद के आवरण से उस गहरे बोध को अनावृत करना ही कवि को अभीष्ट लगता है। मूकमाटी ही इस महाकाव्य की दिव्य और मूर्त नायिका है और नायक है कुम्भकार - आध्यात्मिक गुरु, जो मंगल घट का शिल्पी है । कुम्भ और कुम्भकार के उद्धारकर्त्ता स्वयं जिनदेव हैं। मूकमाटी ( धरा) की मंगल कामना है कि शिल्पी द्वारा निर्मित मंगल कलश से गुरु का पाद-प्रक्षालन हो । सरिता की माटी जो सहस्राब्दियाँ छलाँगती हुई आई, सारी मानव जाति की प्रतीक है तो सागर (धरा का अंग) उस परम सत्ता की गम्भीर प्रकृति का :
" मेरे लिए / इससे बढ़ कर श्रेयसी / कौन-सी हो सकती है / सन्धि वह !... और इधर सामने / सरिता / जो सरपट सरक रही है / अपार सागर की ओर सुन नहीं सकती, इस वार्ता को / कारण !/ पथ पर चलता है / सत्पथ - पथिक वह मुड़कर नहीं देखता / तन से भी, मन से भी । / और, संकोच-शीला लाजवती लावण्यवती - / सरिता - तट की माटी / अपना हृदय खोलती है माँ धरती के सम्मुख / "स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से, ... अधम पापियों से / पद- दलिता हूँ माँ ! " (पृ. ३-४)
इसमें भारतीय दर्शन की रूढ्यात्मक बौद्धिक अभिव्यक्ति नहीं, वरन् कवि की भावनात्मक समृद्धिजन्य वैचारिकता व्यक्त है। युग-युग मानव जीवन प्रवाह में इस मानवीय माटी का संवेदनशील प्रश्न है :