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'मूकमाटी' : प्रवचन महाकाव्य
डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय
आचार्य विद्यासागर ने 'मूकमाटी' महाकाव्य लिखा है जो आकार की दृष्टि से तो महाकाव्य ही है, इसलिए भी कि यह हिन्दी का 'प्रवचन महाकाव्य' है। सामान्य महाकाव्य कथाप्रधान होते हैं पर यहाँ जैन दर्शन और साधना को, तर्क-वितर्क शैली में काव्यात्मक विधि पर प्रस्तुत किया गया है । आचार्य ने कुम्भ और कुम्भकार का रूपक प्रारम्भ से अन्त तक विनियुक्त किया है और सेठ (गृहस्थ) तथा सन्त-साधक का कथाप्रसंग भी चलाया है, किन्तु समग्रता में यह काव्य कथाप्रधान नहीं है।
प्रारम्भ में 'मूकमाटी' में प्रकृति का वर्णन है पर यहाँ सामान्य दृश्यांकन नहीं, दृश्यों का विचारीकरण अधिक है, जो बीच-बीच में भी है :
"करवटें बदल रही/प्रभात की प्रतीक्षा में।/तथापि, माटी को रात्रि भी/प्रभात-सी लगती है :/दु:ख की वेदना में जब न्यूनता आती है/दुःख भी सुख-सा लगता है। ...आज-जैसा प्रभात/विगत में नहीं मिला/और प्रभात आज का/काली रात्रि की पीठ पर/हलकी लाल स्याही से कुछ लिखता-सा है, कि/यह अन्तिम रात है/और/यह आदिम प्रभात;
यह अन्तिम गात है/और/यह आदिम विराट !" (पृ. १८-१९) दार्शनिक विवेचन इतने विस्तार और इत्मीनान से किया गया है कि तत्त्व बोध के जिज्ञासु आराम से पढ़ते चले जाते हैं। दार्शनिकता को आरोपित न कर सहज ढंग से समझाया गया है। ऐसे प्रसंगों में कविता कम है, पर एक लय का ध्यान रखा गया है । विवेचन में कविता कहीं-कहीं मुहावरेदार भाषा में मिलती है :
"दशा बदल गई है/दशों दिशाओं की/धरा का उदारतर उर और/उरु उदर ये/गुरु - दरारदार बने हैं
जिनमें प्रवेश पाती हैं/आग उगलती हवायें ये।" (पृ. १७७) कहीं-कहीं कविता दृष्टान्त रूप में भी है :
"जल को मुक्ता के रूप में ढालने में/शुक्तिका-सीप कारण है और/सीप स्वयं धरती का अंश है ।।...जल को जड़त्व से मुक्त कर मुक्ता-फल बनाना,/पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है। यही दया-धर्म है/यही जिया कर्म है।"
(पृ. १९३) प्रश्न यह है कि प्रवचन के लिए गद्य ही पर्याप्त था, कविता का प्रयोग प्रवचन के लिए क्यों किया गया ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि यही मुनि विद्यासागर जी की इच्छा है, मुनीक्षा! और जो मुनीक्षा है, उससे कविता का एक