________________
52 :: मूकमाटी-मीमांसा
"मन शुद्ध है/वचन शुद्ध है/तन शुद्ध है/और
अन्न-पान शुद्ध है/आइए स्वामिन् !" (पृ. ३२३) इसके अतिरिक्त संवादात्मक शैली में काव्याभिव्यंजना अभिदर्शनीय है। इससे अभिव्यक्ति में सजीवता का संचार हो उठा है, यथा :
"वाह ! धन्यवाद बेटा !/मेरे आशय, मेरे भाव भीतर "तुम तक उतर गए।/अब मुझे कोई चिन्ता नहीं !
...अपनी यात्रा का/सूत्र-पात करना है तुम्हें !" (पृ. १६) भाषा और शैलीगत अनेक स्थलों पर लोकमान्य मुहावरों और लोकोक्तियों का कविवर ने सुष्ठु प्रयोग किया है। आयुर्वेद के बोधक प्रयोग, अंक विद्या के विरल प्रयोग अभिव्यक्ति में चमत्कार पैदा करते हैं। पूरे काव्य में ओज गुण का आनन्द आकीर्ण है।
नई कविता की नाईं विवेच्य काव्य में कथ्य है और है संरचना का विधान । इन्हीं अंगों पर हमें इस काव्य की कमनीयता का आस्वाद करना अपेक्षित है। यहाँ साहित्यदर्पणकार की परिभाषा बोझिल प्रतीत होती है । काव्यधारा तो किसी महाश्रमण की पदयात्रा की नाईं संयम और सूझ-बूझ से सम्पन्न दिशादर्शन का कार्य करती चलती है। जो इसमें अवगाहन करे वह सुखी और जो तटवर्ती दर्शक अथवा श्रोता बन साक्षी बने वह भी आनन्दमग्न हो धन्य और अनन्यता अनुभव कर उठता है । इतने बड़े काव्य के पारायण और श्रोतन से भी किसी भी कामकाजी को कोई अखरन जैसी अकुलाहट अथवा ऊब नहीं होती, इसे मैं काव्य और काव्ययिता की पूरी की पूरी सफलता ही मानता हूँ । आज के क्षणवादी युग में इतना विशाल काव्य का साभिप्राय सृजन, सुरुचि और शिक्षा का दस्तावेज़ खोलना वस्तुत: बहुत बड़ी बात है । इस काव्य को मैं छायावादी महाकाव्य की 'कामायनी' से भी सशक्त श्रमण महाकाव्य' की संज्ञा से समादृत करता हूँ। इत्यलम्।
पृष्ठ ३०९ फिरबायें हाय में कुम्भ लेकर,--.. प्राय: रशी पर टिकता है।
JI
२०५२४68