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54 :: मूकमाटी-मीमांसा
सुख और दुःख को चक्रवत् मानते हुए उन्होंने शाश्वत सत्य का उद्घाटन किया है :
"पीड़ा की अति हो / पीड़ा की इति है / और पीड़ा की इति ही / सुख का अथ है।” (पृ. ३३)
इस अध्याय में कवि ने वर्ण का तात्पर्य न रंग से लिया है। है । स्वयं कवि के शब्दों में :
न अंग से; प्रत्युत रीति, परम्परा, परिपाटी और ढंग से लिया
" इस प्रसंग में / वर्ण का आशय / न रंग से है
न ही अंग से / वरन् / चाल-चरण, ढंग से है ।" (पृ. ४७)
कुण्डलिनी से लेकर सहस्रार तक पहुँचने पर आत्मा रूपी मछली को कैसी आनन्दानुभूति होती है, इसका सहजोच्छ्वास कवि की साधनात्मक प्रवृत्ति से नि:सृत हुआ है :
" लबालब जल से / भरी हुई बालटी कूप से / ऊर्ध्व-गतिवाली होती है / अब पतन - पाताल से / उत्थान - उत्ताल की ओर // केवल देख रही है मछली, जल का अभाव नहीं / बल का अभाव नहीं / तथापि / तैर नहीं रही मछली । भूल - सी गई है तैरना वह, / स्पन्दन - हीन मतिवाली हुई है
स्वभाव का दर्शन हुआ है, कि / क्रिया का अभाव हुआ-सा / लगता है अब "" ! अमन्द स्थितिवाली होती है वह ! / बालटी वह अबाधित / ऊपर आई - भूपर कूप का बन्धन / दूर हुआ मछली का, / सुनहरी है, सुख - झरी है
धूप का वन्दन ! (पृ. ७८)
कवि का दर्शन "वसुधैव कुटुम्बकम्" की शिक्षा देता है। वह आधुनिक स्वार्थपूर्ण स्थिति को देखकर ऊहापोह की स्थिति में है :
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"वसुधैव कुटुम्बकम्" / इस व्यक्तित्व का दर्शन - / स्वाद - महसूस / इन आँखों को सुलभ नहीं रहा अब ! / यदि वह सुलभ भी है / तो भारत में नहीं, महा- भारत में देखो !/ भारत में दर्शन स्वारथ का होता है । हाँ-हाँ !/इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है / कि / "वसुधैव कुटुम्बकम्"
• इसका आधुनिकीकरण हुआ है / वसु यानी धन-द्रव्य / धा यानी धारण करना आज / धन ही कुटुम्ब बन गया है / धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ.८२)
कवि ने सत्युग और कलियुग को युग न मानकर उसे मानसिक चिन्तन के आधार पर विभाजित किया है :
" सत् - युग हो या कलियुग / बाहरी नहीं / भीतरी घटना है वह
सत् की खोज में लगी दृष्टि ही / सत् - युग है, बेटा ! / और
असत् - विषयों में डूबी / आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि / स्वयं कलियुग है, बेटा !" (पृ. ८३)
आचार्य कवि की कृति संयम, त्याग, तपस्या का कितना अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करती है, एक बानगी देखें: