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राम ही क्यों न हों / दण्डित करेगा ही !" (पृ. २१७ ) ० " राह में राशि मिलती देख / राहु गुमराह - सा हो गया हाय ! / राहु की राह ही बदल गई ।" (पृ. २३५ )
मूकमाटी-मीमांसा
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उपमान भी अन्तरकथाओं से जुटाए गए हैं। ऐसा ही एक उदाहरण है : " रावण की भाँति चीखना !" (पृ. २४७ )
चौथा खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' है । इस खण्ड में कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि कवि कविता के माध्यम से कोई कहानी सुना रहा है :
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"आज अवा से बाहर आया है / सकुशल कुम्भ ।...
लो, कुम्भ को अवा से बाहर निकले / दो-तीन दिन भी व्यतीत ना हुए
उसके मन में शुभ-भाव का उमड़न/बता रहा है सबको कि,... ।” (पृ. २९७-२९९)
" स्वर्ण का मूल्य है / रजत का मूल्य है / कण हो या मन हो
प्रतिपदार्थ का मूल्य होता ही है, / परन्तु, / धन का अपने-आप में मूल्य कुछ भी नहीं है ।" (पृ. ३०७ - ३०८)
यहाँ लगता है कि कविता के माध्यम से एक बहस चल रही है जहाँ मूल्यों का निर्धारण हो रहा है।
चौथा खण्ड सबसे बड़ा है। इसमें कहानी निरन्तर चलती रहती है। उसके माध्यम से अनेक दार्शनिक तथ्यों को अभिव्यक्त किया गया है। कुम्भ की यात्रा आगे-आगे बढ़ रही है । गन्तव्य उसकी ओर बढ़ रहा है । कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है। वहीं कवि के मन में कुछ प्रश्न उठते हैं। नदी से आतंकवाद की प्रार्थना आरम्भ होती है
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“ओ माँ ! जलदेवता ! / हमें यह दे बता / अपराधी को भी क्यापार लगाती है ? / पुण्यात्मा का पालन-पोषण / उचित है " कर्त्तव्य है, परन्तु क्या पापियों से भी / प्यार करती है ?" (पृ. ४५६-४५७)
'मूकमाटी' के चारों खण्डों में कवि का चिन्तन बराबर चलता रहता है। वह अनेक दृष्टान्त पाठकों के सामने रखता है । अनेक प्रश्न उठाता है। उन प्रश्नों के उत्तर देता है। चिन्तन करता है। मनन करता है और भाव प्रवाह में तीव्र गति से बहता चला जाता है । मूकमाटी के माध्यम से अनेक सन्देश मुखर हो उठते हैं । सोचने को नई दिशा मिलती है । शान्ति, अमन, भाई-चारे की नई राह सामने आती है। धैर्य, साहस, सहनशीलता की शिक्षा प्राप्त होती है । 'मूकमाटी' महाकाव्य है या नहीं - यह कोई बहस की बात नहीं। आप उसे जो चाहें मानें । काव्यशास्त्र के अनुसार उसमें महाकाव्य के अनेक लक्षण भी मिलते हैं। भले ही उसका कथानक परम्परागत महाकाव्य की श्रेणी में न आता हो । आरम्भ से लेकर अन्त तक उसमें पाठक को बाँधे रखने की क्षमता है । वह सोचने-विचारने पर प्रेरित करता है । मैं 'मूकमाटी' के प्रकाशन पर आचार्य विद्यासागरजी को बधाई देती हूँ और उनकी दीर्घायु की कामना करती हूँ ।