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44 :: मूकमाटी-मीमांसा
जो कण-कण बिखरे रहने पर नहीं रहती। वैसे ही संसारी प्राणी की शक्ति पतित दशा में खोई - सी रहती है। उसके पुरुषार्थ करने से विश्व को भी जानने की क्षमता उसमें उद्घाटित हो जाती है । कणों के रूप में वह मिट्टी जल में घुल कर · डूब जाती है जबकि घट के रूप में वह स्वयं भी जल में नहीं डूबती और डूबती को भी पार उतारने में सहायक बन जाती है । ऐसी क्षमता सब में उद्घाटित हो, यही मूल स्वर इस रचना का है ।
श्री नायक ने जानना चाहा कि भारत की सन्त परम्परा में ज्ञान और वैराग्य की पूर्ण स्थिति प्राप्त होती है । जीवन में वीतरागता के विज्ञान का मूकमाटी से क्या सम्बन्ध है ? आचार्यश्री ने बताया कि वीतराग विज्ञान विराट् ज्ञान धारण करने की क्षमता उत्पन्न करता है, जिसकी प्राप्ति हेतु सर्वप्रथम राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, विषय- कषायों तथा पाप प्रवृत्तियों से ऊपर उठना होता है, तभी यह क्षमता उद्घाटित होती है। इसी वीतराग विज्ञान के माध्यम से ही ि से पावन बनने रूप उन्नति का पथ प्रशस्त होता है। इस हेतु व्यक्ति को संयत एवं वीतरागी होना आवश्यक है । तभी मौलिक ज्ञान की प्राप्ति होगी । अन्यत्र इसे 'स्थितप्रज्ञ' भी कहा गया है । हमारी प्रज्ञा या बुद्धि यहाँ-वहाँ दौड़ती रहती है, स्थित नहीं हो पाती। वही प्रज्ञा जब स्थित हो जाती है तो सही दिशा में स्वयमेव प्रयास करती है, जिससे अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है।
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय - इन तीनों के परस्पर सम्बन्ध को मूकमाटी के तत्त्वज्ञान में कैसे समन्वित किया जाए ? इस जिज्ञासा पर समाधान प्रदान करते हुए आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि ज्ञाता मूल द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है तथा ज्ञेय यानी जानने योग्य पदार्थ कहलाते हैं । हम ज्ञेयभूत जड़ पदार्थों की ओर तो देखते हैं किन्तु उसके भीतर छुपी जानने वाली क्षमता को नहीं देख पाते । 'मूकमाटी' में वह प्रेरणा है जिससे हमारी चेतना का विषय मात्र ज्ञान बन सके अथवा अनुभूति मात्र ज्ञान का विषय बन सके। इसके लिए हर्ष-विषादों से ऊपर उठ कर तथा संघर्षों के बीच से गुज़रते हुए आगे बढ़ने पर पतित से पावनता प्राप्त की जा सकती है और शुद्ध चेतन बनने का प्रयास किया जा सकता है। इस परिचर्चा के दौरान जब श्री नायक ने प्रकृति को स्पर्शित करने वाले शिल्प विधान के बारे में आचार्यश्री के विचार जानना चाहे तब उन्होंने बताया कि प्रकृति बहुत अच्छा शब्द है, जो स्वभाव का वाचक है । सन्तों ने सर्वप्रथम संस्कृति को सामने लाने के लिए प्राकृत भाषा का माध्यम चुना था। जीवन के उत्थान में वही शिल्प विधान मुख्य है जो आत्मतत्त्व या स्वभाव की ओर मुड़ने की दिशा प्रदान करे । 'मूकमाटी' में यही दिग्दर्शन कुम्भकार के माध्यम से किया गया है । युग के आदि से ही कुम्भकार शिल्पकार है, जिसने अपने शिल्प को अपव्यय से दूर रखा। वही ऐसा शिल्पी है, जिस पर सरकार का कोई टैक्स नहीं है। भारतीय संस्कृति में वही शिल्प अद्वितीय माना जाता है, जो बिखराव को जुड़ाव के साथ या खण्डित को अखण्डित करने वाला हो । यही 'मूकमाटी' का प्रदेय है ।
'उपादान की योग्यता, घट में ढलती सार । कुम्भकार का हाथ हो, निमित्त का उपकार ॥ "
हम दूसरे पर उपकार करना चाहते हैं किन्तु जिस पर उपकार कर रहे हों, उसमें ऐसी योग्यता भी होनी चाहिए। जैसे मिट्टी में जो योग्यता है, वह कुम्भकार के द्वारा उद्घाटित हो जाती है। माटी में जो विराट् योग्यता है, वह अन्य में नहीं है। उसके विकास एवं उन्नति का श्रेय जैसे कुम्भकार को जाता है, ऐसे ही प्राणी मात्र को दिशाबोध प्राप्त हो, ताकि वह भी अपना कल्याण कर सके, यही 'मूकमाटी' का सन्देश है ।
बड़े-बड़े वृक्षों की विराटता छोटे से बीजों में छुपी होती है, जिन्हें धरती में आरोपित करने पर वे अपने कठोर आवरण को फोड़ कर, ऊपर अंकुरित जाते हैं एवं वृक्ष का रूप धारण करते हैं । वे वृक्ष, नदी, सरोवर आदि सभी मूक - माटी की गोद में हैं। वृक्ष की डालों में होने वाले विभिन्न हरे, लाल, पीले रंगों का निर्माण किसने किया है ? श्री मुकेश