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मूकमाटी-मीमांसा
नायक की इस जिज्ञासा पर समाधान प्रदान करते हुए आचार्य श्री विद्यासागरजी ने बताया : "उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर । आत्मबोध हो तुरत ही, मुख संयम की ओर ॥”
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जैसे अंकुर फूटते ही उसका मुख अपने आदर्श, ऊर्जा के स्रोत सूरज की ओर होता है, वैसे ही प्रत्येक द्रव्य के अन्दर उपादन में ऐसी शक्ति छुपी है जो विभिन्न बाह्य निमित्तों, साधनों के माध्यम से उद्घाटित हो जाती है । उन्नति, विकास के लिए निमित्त की आवश्यकता होती है, जो धरती में पाई जाती है । स्वर्गीय भूमि को उत्तम क्षेत्र नहीं माना । पतित से पावन बनने के लिए धरती को ही उत्तम क्षेत्र माना है, स्वर्ग को नहीं ।
आज तक अन्य महाकाव्यों में जीवित पात्र ही मुख्य रूप से पाए जाते हैं, फिर 'मूकमाटी' के नायक सहित अधिकांश पात्र निर्जीव क्यों हैं, जो महाकाव्य के पारम्परिक लक्षणों से भिन्न भी हैं ? - इस जिज्ञासा पर समाधान प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने बताया कि सजीव पात्रों की अपनी सीमाएँ होती हैं। निर्जीव पात्र को प्राणवान् बनाकर उसके माध्यम से उसकी वास्तविक वेदना को अभिव्यक्ति प्रदान की जा सकती है, जो सजीव दशा में व्यक्ति स्वयं नहीं कह पाता। फिर महाकाव्यों के नियम तो टूटते ही चले गए। नियम ही नियम नहीं रहे और पद्य काव्य का स्थान अतुकान्त ने धारण कर लिया । अत: लोक को आत्मकल्याण का वास्तविक बोध प्राप्त हो, यही 'मूकमाटी' का मूल अभिप्राय है । आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के द्वारा लिखित 'मूकमाटी' महाकाव्य पर परिचर्चा के दौरान श्री नायक ने जब आचार्यश्री से पूछा कि मिट्टी धरती के अन्दर पानी है और पानी में मिट्टी है, तब सृष्टि का आधार क्या है ? आचार्यश्री ने बताया कि जमीन सभी को आश्रय प्रदान करती है, इसीलिए उसे धरा, पृथ्वी, जमीन, क्षमा आदि का
है । जबकि जल को साहित्य में श्लेष के द्वारा 'जड़' भी कहा जाता है । वह जड़ होकर भी धरती का आधार / आश्रय पाकर ज्ञान पा लेता है, अपने आप को उपयोगशील बनाकर कृतार्थ हो जाता है । सघन मेघों से गिरी हुई बूँदें सागर में गिरकर उसी में विलीन हो जाती हैं, खारी बन जाती हैं। जब तक वह बूँदें धरती का सहारा नहीं लेतीं, वे मुक्ता नहीं बन पातीं । मेघ से गिरा जल नीचे आकर, सीप की गोद में जाकर मुक्ता का रूप धारण करता है। इसीलिए धरती की आवश्यकता है । उसके कारण ही जलत्व में पूज्यता / श्रेष्ठता आती है। 'मूकमाटी' में भी धरती के अंश माटी को इसीलिए मुख्यता प्राप्त हुई है ।
एक अन्य प्रश्न के उत्तर में आचार्यश्री ने बताया कि 'मूकमाटी' सृजन की यात्रा शब्द से अर्थ एवं अर्थ से भाव की ओर नहीं हुई अथवा बाहर से भीतर नहीं बल्कि भीतर से बाहर हुई है । अत: भाव-संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली है । परिचर्चा के दौरान श्री नायक ने जानना चाहा कि दृश्य या द्रष्टा के बीच ऐसा क्या सम्बन्ध है कि बाहर देखने से कभी आनन्द की अनुभूति होती है तो कभी ग्लानि होने लगती है ? वह मन की कमी है या दृश्य अथवा द्रष्टा की ? आचार्य श्री विद्यासागरजी ने बताया कि भारतीय संस्कृति में दृश्य नहीं, द्रष्टा महत्त्वपूर्ण माना गया है । दृश्य को देखकर कई प्रकार के भाव हो सकते हैं, जो व्यक्ति की मन:स्थिति / उपयोग पर आधारित हैं । जो दिख जाता है, उनमें देखने वाले के विचार/ परिणाम मुख्य हैं । द्रव्य / दृश्य को देखकर और भी अनेक प्रकार के भाव हो सकते हैं । श्री के यह पूछने पर कि महिलाएँ सदा दृश्य तथा पुरुष सदा द्रष्टा बनना चाहता है, ऐसा क्यों होता है ? तब आचार्यश्री ने कहा कि यह पसन्द करने एवं चाहने वाले दोनों की भूल है। वस्तुत: यह द्रष्टापने को नहीं समझ पाने का परिणाम है। स्वभाव को जानें तो सभी पुरुष हैं। बाहर तो यह मात्र ड्रेस / वेश ही है। 'मूकमाटी' के एक प्रकरण में यह भाव स्पष्ट किया गया है कि पुरुष यानी आत्मा सब में है। यह जो ऊपर दिख रही है, वह तो प्रकृति है। इस वास्तविकता को नहीं समझ पाने के कारण ही संसार में भटकन हो रही है ।
नायक
('आचरण' (हिन्दी दैनिक), सागर - मध्यप्रदेश, २९-१०-१९९५)
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