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मूकमाटी-मीमांसा :: 39
भागवत मुहूर्त तथा विश्व सृष्टि के नवोन्मेष की अनेक आध्यात्मिक सम्भावनाओं का उन्मीलन करता है कि “यह वह घड़ी थी जब देवता जगे नहीं थे।"
It was the hour before the gods awake.-Savitri. [1/1/1, Pg.1]
इस वाक्य की बड़ी मार्मिक व्यथा स्वयं श्री माँ ने की है जिसका आशय यही है कि यह वह मुहूर्त था जब चित्, आनन्द, सत्य और जीवन से परिपूर्ण सत्ता अपने मूल आद्य स्वरूप में अव्यक्तावस्था से अभिव्यक्ति की ओर अग्रसर होने वाली थी, ऊर्ध्व परमसत्ता में पार्थिव सृष्टि का प्रारम्भिक स्पन्द होते ही गुप्त रूप से अभावात्मक शक्तियों का प्रवेश हुआ
और अपने मूल स्रोत से विचलित होकर चित् अचित् में, आनन्द विषाद में, सत्य मिथ्यात्व में और जीवन मृत्यु में परिणत हुआ-तभी उनके निराकरणार्थ दिव्य प्रकाश की प्रतिनिधि देवशक्तियों के जागरण की अपेक्षा हुई और यह जागरण मानों सविता की पुत्री, दिव्य शब्द की अधिष्ठात्री देवमाता अदितिस्वरूपिणी सावित्री के अवतरण का सहज परिणाम था । तात्पर्य यह है कि जिस भागवत मुहूर्त में सावित्री का संचरण होता है उस गहन अन्धकार में एक मात्र परमा शक्ति का ही एक मात्र दिव्य प्रकाश प्रकृति को आलोकित कर रहा था। प्रतीक ऊषा' भावी मंगलमय सनातन भागवत दिवस की सम्भावना का संकेत मात्र है।
द्वितीय सर्ग में सावित्री अपने दृढ़, अदम्य संकल्प से नियति को चुनौती देने का निश्चय करती है। उसकी अकेली संकल्पशक्ति वैश्व नियम का विरोध करने को तत्पर होती है और यह संकल्पशक्ति उसके अगाध विश्वप्रेम का द्योतक था :
Love in her was wider than The Universe, The whole world could take refuge in her single heart. ...Her single will opposed the Cosmic rule.- Savitri. [1/1/2, Pg.15 & 19]
तृतीय सर्ग में लोकमंगलकामी अश्वपति के उस महत्तर व्यक्तित्व की झलक है जो एक महत्तर जगत् का द्रष्टा था।
AGreater being sawagreater world. - Savitri. [1/1/3, Pg.26]
'सावित्री' महाकाव्य का द्वितीय भाग मूलत: सावित्री के मानवीय जन्म, कर्म, शील, सौन्दर्य एवं माधुर्य का दिव्य आख्यान है, जिसके अन्तर्गत इस दिव्य ज्वाला के जन्म, शैशव, विकास एवं अभीप्सा सावित्री और सत्यवान के आकस्मिक मिलन, नारद के मुख से सत्यवान की मात्र एक वर्ष की शेष अल्पायु की भविष्यवाणी के रूप में नियति की घोषणा, सत्यवान के प्रति सावित्री की अनन्य अनुरक्ति की प्रगाढ़ता और भावी संकट की घड़ी की अनवरत प्रतीक्षा के बीच सावित्री के अन्तर्द्वन्द्व एवं आत्मसन्तुलन तथा वन में सत्यवान के तथाकथित देहावसान का नाटकीय एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन है । यह भाग मानवीय संवेदनों की अनेक मार्मिक अभिव्यंजनाओं से समृद्ध है और महाकवि की रागात्मिका वृत्ति की अगाध गहराई और साथ ही उसकी सांस्कृतिक चेतना की संचरणभूमि को उजागर करता है।
'सावित्री' महाकाव्य मात्र योगसंसिद्धियों की गाथा न होकर एक सरस काव्य भी है जिसमें मानवीय अनुराग भाव को दिव्य प्रेम के महाभाव की उदात्त भावभूमि पर प्रतिष्ठित किया गया है। सावित्री की सत्यवान के प्रति अनन्य प्रेम की अभिव्यंजना देह, प्राण, मन और अन्तरात्मा के सभी स्तरों का निर्वाह करती हुई प्रेम को जीवन के विराट एवं शाश्वत सत्य के रूप में संस्थापित करती है। इस सन्दर्भ में सर्वाधिक मार्मिक प्रसंग वह है जहाँ नारद की भविष्यवाणी के कारण अवसादग्रस्त माता-पिता के समझाने पर सावित्री उन्मुक्त हृदय से घोषित करती है कि सत्यवान का जीवन यदि मात्र एक वर्ष के लिए हो तो वही उसके लिए समग्र जीवन है और इस प्रेम के आह्लाद के समक्ष सहस्र भाग्यशाली वर्षों का वैभव दारिद्रय है।